सोमवार, 12 दिसंबर 2022

ग़ज़ल (जानते हैं सब तुम्हें कितने भले हो?)

 जानते हैं सब तुम्हें कितने भले हो? 

तुम सदा ही भीड़ में छिपकर चले हो। 


काम करने का सलीखा तक नहीं है

रोल मॉडल खाम-ए-खां बनने चले हो।


हाँकते थे डींग कि आफताब हैं हम

जुगनुओं से ज्यादा तुम कब जले हो?


हो गया बस भी करो अब कद्रदानो

छल रहे हो जिनके टुकड़ों पर पले हो। 


हाँ सही है आज के तुम देवता हो 

बात पर टिकते नहीं हो दोगले हो। 


मौत छूकर मर गई कितनी दफ़ा उफ्फ 

सुकुमार ऐसे खूब साँचे में ढले हो। 

©️ सुकुमार सुनील

ग़ज़ल (कर कहीं से भी मगर आगाज़ करना सीख ले)

 कर कहीं से भी मगर आगाज़ करना सीख ले

सिर पे मेरे पैर रख परवाज़ करना सीख ले ।


लड़खड़ा न जाएँ तेरे कदम मंज़र देखकर

इसलिए मुझको नजर-अंदाज करना सीख ले । 


कल कहाँ किसने कहा कि आएगा ही आएगा 

चल जो करना है अमा तू आज़ करना सीख ले ।


उड़ रहीं रँग-रंग की ये तितलियाँ उड़ने भी दे 

कर सके बहती हवा पर राज करना सीखले।


मैं मयस्सर हूँ तुझे हर राह में हरएक पल 

अपनी हसरत को सनम अल्फाज़ करना सीख ले ।


आ रही हैं मुश्किलें जो आएँगी हर मोड़ पर 

मुश्किलों को तू उठाकर ताज करना सीख ले। 


पढ़ किताबें डिग्रियां ले जिंदगी में बेशुमार 

हुनर को पहले मगर हमराज़ करना सीख ले। 


कीमती है जान अपनी जान से पहले मगर 

वतन पर सुकुमार अपने नाज़ करना सीख ले। 

©️ सुकुमार सुनील

सजल (तुम हमें कब तक बहिष्कृत कर सकोगे?)

तुम हमें कब तक बहिष्कृत कर सकोगे?

स्वयं को कब तक तिरस्कृत कर सकोगे?


जा रहे हो द्वेष में निज को डुबाते

स्वयं को कैसे परिस्कृत कर सकोगे?


योग का संकल्प ही तो हो स्वयं तुम

विरह को कैसे अलंकृत कर सकोगे?


जीतकर हमको हमारी हार पर तुम

स्वयं को कैसे पुरस्कृत कर सकोगे?


मन मरे या तन किसी की मृत्यु पर तुम 

क्या कहो संगीत झंकृत कर सकोगे?


पढ़ रहे हो काम ही 'सुकुमार' नित तुम 

स्वयं को कैसे सुसंस्कृत कर सकोगे? 


©️ सुकुमार सुनील

सजल (बस अब मुझे मौन भाता है)


          *सजल*

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समांत- आता 

पदांत- है

मात्राभार- 16

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बस अब मुझे मौन भाता है

और नहीं बोला जाता है 


प्रश्न प्रतीक्षारत हैं सारे

उत्तर कौन कहाँ पाता है


आत्ममुग्ध हो गए सारथी

रथ विरुदावलियाँ गाता है 


दाने-दाने को भटके जन

तीतर स्वर्ण-भस्म खाता है


लगा नारियल कर बंदर के 

झूठ सत्य पर मुस्काता है

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          ©️सुकुमार सुनील

सजल (शब्द आप जो बोल रहे हैं)


   दिनांक - 24-08-2020

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          *सजल*

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समांत   - ओल

पदांत    - रहे हैं 

मात्राभार - 16

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भेद समूचा खोल रहे हैं

शब्द आप जो बोल रहे हैं


वाणी में रस है,विष भी है

सुनकर तन-मन डोल रहे हैं


लुटा कोष जग-संबंधों का

हम अपनत्व टटोल रहे हैं


सन्मुख छप्पन भोग रखे हैं 

मन मदिरा में घोल रहे हैं 


विधि सत्ता के चरण चूमती 

न्यायालय कर मोल रहे हैं


संस्कृतियों के स्रोत-बिंदु हैं

शुचिता के भूगोल रहे हैं

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           ©️सुकुमार सुनील

           

सजल (एक नया संग्राम सजल है)

                         *सजल*

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समांत- अल

पदांत- सजल है

मात्राभार - 16

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हिंदी का निज-ग्राम सजल है

एक नया संग्राम सजल है


अपने मुँह में वाणी अपनी

अनुपम ललित-ललाम सजल है


हिंदी माँ है देवि स्वरूपा

पावन चारों धाम सजल है


समझ सको तो समझो बंधु

मुक्त विधा का नाम सजल है 


यह पुष्पों का एक गुच्छ है 

सौरभ यह अविराम सजल है 


ग्रीष्मकाल में तरु छाया है

शीतकाल में घाम सजल है 


कथ्य-शिल्प वैचित्र्य लिए है

पदिक-पदिक उद्दाम सजल है


   ©️ सुकुमार सुनील 

          

सजल (मन ज्यों गंगाजल लिख देना)

 

दिनांक - 19-08-2020


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              *सजल*

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समांत- अल

पदांत-  लिख देना

मात्रा-भार- 16

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निश्छल अंतस्तल लिख देना

मन ज्यों गंगाजल लिख देना


पर-पीड़ा का भान हो सके

भाव-विचार सरल लिख देना 


मातृ-भूमि ही सर्वोपरि है 

राष्ट्र-हेतु प्रतिपल लिख देना


विकृत रुप हुआ वसुधा का

पर्यावरण विमल लिख देना 


शब्दों में अति प्रेम प्रकट है

अनुभव में मत छल लिख देना

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       ©️सुकुमार सुनील

         

सजल(तिमिर हटे दिनमान चाहिए)


              *सजल*

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समांत- आन

पदांत-  चाहिए 

मात्रा-भार- 16

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तिमिर हटे दिनमान चाहिए

दीपित हिंदुस्तान चाहिए


सत्, असत्य पर विजय पा सके

सत्यनिष्ठ सुविधान चाहिए


पात-पात उल्लू बैठा है 

डाल-डाल संज्ञान चाहिए 


बहतीं हैं विष-युक्त हवाएँ

सबको जीवन-दान चाहिए


जन-जन व्याधि-ग्रस्त बैठा है

औषधि-मुक्त निदान चाहिए


आँखों में धागे हैं रक्तिम

कहते हैं सम्मान चाहिए

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       ©️सुकुमार सुनील

               

सजल (हम आँखों में जल रखते हैं)

 *सजल*

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समांत- अल

पदांत-  रखते हैं 

मात्रा-भार- 16

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उर को सदा तरल रखते हैं

हम आँखों में जल रखते हैं


दया-प्रेम-करुणालय हैं हम

मन में नेह-विमल रखते हैं


सदा चले हँस-हँस काँटों पर

भले पाँव कोमल रखते हैं


सुनकर अग्नि-शमन हो जाता

वाणी में बादल रखते हैं


आज तुम्हारा शुभ हो तुमको

हम अपना मत कल रखते हैं

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       ©️सुकुमार सुनील

सजल (नीरस मन की ताल हुई है)

 *सजल*

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समांत.    - आल

पदांत.    - हुई है 

मात्रा-भार- 32

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सूनसान-सन्नाटों वाली रात घुप्प विकराल हुई है

चारों-ओर विवशताएँ हैं नीरस मन की ताल हुई है


पल-पल चीख-पुकार-पगा है सतत रक्त-रंजित वसुधा-उर

नीति, शक्ति के पाँव पलोटे न्याय संग विधि ढाल हुई है 


कागों ने मोती पाए हैं हंस विवश उपवास साधने

करुणा शोक-विकल अति आकुल कटुता मालामाल हुई है


देखो प्रेम-गाँव में आकर सब कुछ अस्त-व्यस्त ऊजड़ है

शुष्क मूल है विटप-विटप की पुष्पित कैसी डाल हुई है


चलो चलें झोलियाँ सँभालें खेतों में मोती विखरे हैं

समय-चुनावी, नेह-नीर की वर्षा बहुत विशाल हुई है

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       ©️ सुकुमार सुनील

सजल(अब हम सभी स्वतंत्र हो गए)


दिनांक-15-08-20

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        *सजल*

समांत- अंत्र

पदांत - हो गए 

मात्राभार- 16

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सफल समूचे मंत्र हो गए

अब हम सभी स्वतंत्र हो गए 


देव मान पूजने चले थे

थाल स्वयं षड्यंत्र हो गए


खींच-तान आपाधापी है 

तन-मन सब संयंत्र हो गए 


जीवन बदल रहा है करवट

कलुषित सारे तंत्र हो गए


कुछ पौधे फल-फूल रहे हैं

कहने को गणतंत्र हो गए


उत्कोची पवनें मचलीं हैं 

स्वप्न सभी परतंत्र हो गए


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©️सुकुमार सुनील

           

सजल (मरुथल में सपने बोए हैं)


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        *सजल*

समांत- ओए

पदांत - हैं

मात्राभार- 16

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मरुथल में सपने बोए हैं

आँखों ने आँसू खोए हैं


तुम तुहिन बिंदु मत कह देना 

जाने कितने मन रोए हैं 


चहुँदिशि अंगारे दहक रहे

हम आँख मूँदकर सोए हैं


है नीर विपुल इस सागर में 

पग पर नदियों ने धोए हैं


गर्वित हर नग निज तुंग भाल

सब भार धरा ने ढोए हैं


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©️सुकुमार सुनील

            

सजल ( तब जा वृंदावन होता है)


विषय - संस्कृति 

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        *सजल*

समांत- अन

पदांत - होता है

मात्राभार- 32

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स्मरण मात्र से ही सुरभित यह तन-मन सावन होता है

प्रत्येक कष्ट का माधव के  चरणों में* समापन होता है


कण-कण में शक्ति समाहित है यह भूमि परम अवतारों की

हमने ही* सत्य-शोध समझा यह सत्य सनातन होता है


संस्कृतियों की है मूल-स्रोत वसुधा भारत की देवमयी

हम गरलकंठ के अनुगामी उर-उर अपनापन होता है 


इत पत्र-पत्र पर वेद-ऋचाएँ पढ़ो ध्यान से सर्जित हैं 

शुचि पुष्प-पुष्प पर उपनिषदों का नित आराधन होता है


तृण-तृण हो प्रेम-पगा रज पा आनंद स्वयं आनंदित हो

वह दिव्य धरा का सरस खण्ड तब जा वृंदावन होता है


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©️ सुकुमार सुनील 

रविवार, 11 दिसंबर 2022

सजल (मृत्यु पर हँसने लगे हम)

 *प्रयोग पूर्ति -112*

दिनांक-13-08-20

 दिन-गुरुवार 

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        *सजल*

समांत- अने

पदांत - लगे हम

मात्राभार- 14

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गर्त में धँसने लगे हम

मृत्यु पर हँसने लगे हम


हंस थे संवेदना के

व्याल बन डसने लगे हम


मन मरुस्थल हो गया है

रेत पर बसने लगे हम


चीरकर आए वनों को 

घास में फँसने लगे हम


हैं शिथिल संबंध सारे

स्वयं को कसने लगे हम


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©️ 〰️ सुकुमार सुनील

            फिरोजाबाद

सजल(सपनों में कुछ सुहावने से चित्र मिले हैं)

पदांत - इत्र 

समांत- मिले हैं 

मात्राभार - 24


सपनों में कुछ सुहावने से चित्र मिले हैं

फूलों-से खिलखिलाते हुए मित्र मिले हैं।


बातों में हों उनकी पड़े शहद के छींटे

आचरण में उनके जैसे इत्र मिले हैं।


उतार कर देखी समय के गर्त की परत

स्थान सारे देश के पवित्र मिले हैं


कहानियाँ सुनी-पढ़ीं हैं प्रेमचंद कीं

विविध रंग-ढंग के चरित्र मिले हैं।


धनवंत को मनमानियाँ निर्धन को विवशता

प्रबंध सदा राष्ट्र के विचित्र मिले हैं।


शत्रु ही हैं देश के नेतृत्व में सभी 

'सुकुमार' समझते हो कि सौमित्र मिले हैं।। 

©️ सुकुमार सुनील

सजल(हिन्दी की सशक्त और स्वाभिमानी बेटी : सजल)

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*हिन्दी की सशक्त और स्वाभिमानी बेटी : सजल*


समृद्ध शब्दकोश, समृद्ध साहित्य व विशद-हृदया भाषा हिंदी ने जहाँ विश्व की अनन्य भाषाओं को अपने आँचल की छाया देकर अपनाने का काम किया तो वहीं उन अन्य भाषाओं ने हिन्दी को इतना निर्बल समझा कि उन्होंने हिन्दी को, हिन्दी से परेय हिंदुस्तानी और हिंग्लिश बनाने का भरपूर प्रयास किया। दुर्भाग्य की बात यह है कि स्वयं को हिन्दी के पुत्र कहने वाले असंख्य साहित्यकार, यह सब आँख मूंदकर सहते रहे। तो वहीं हिन्दी की उदार हृदया विधाएँ भी, इस विद्रूपता को सहज स्वीकारतीं रहीं। देखदे ही देखते इन मिश्र भाषाओं ने अपना एक बड़ा साम्राज्य खड़ा कर लिया। अब तक विशुद्ध हिन्दी की वकालत करने वाले चंद साहित्यकार भी   थक-हार कर या यों कहें, उन मिश्रित भाषाओं से प्रेरित होकर उसी धारा में बहने लगे।......

    परन्तु आज हिन्दी के सुरम्य आँचल में पले-बढ़े, हिन्दी के सच्चे सपूतों के प्रणम्य प्रयासों से हिंदी पुनः अपने स्वाभिमान, अपनी समृद्धि के अनंत आकाश को स्पर्श करने के लिए तत्पर ही नहीं, अपितु उसमें विचरण करती हुई दृष्टिगोचर हो रही है।.... 

      हिंदी की विशुद्ध विधा रुपी बेटियों के मध्य जन्मी *सजल*  विधा, हिंदी की एक ऐसी बेटी है, जिसे अपनी माँ की मान-मर्यादा और स्वाभिमान का सम्पूर्ण रूप से ध्यान है। वह विशुद्ध हिन्दी भाषा के शब्द, ढंग/शैली, छंद और व्याकरण के अनुपालन का अक्षरशः ध्यान रखती है। 

     साथ ही *सजल*  रूप, लावण्य और आकर्षण से युक्त एक ऐसी अनिद्य सुंदरी है जिसे देखते/सुनते/पढते ही लेखक और पाठक दोनों को अतीव आनंद की प्रतीति होती है। अतः रचनाकार रचनाधर्म में तो पाठक रसास्वादन में रत हो जाता है। 

    अंत में सजल निःसंदेह हिन्दी की गौरवशाली विधा है। जो न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध कर रही है, अपितु उसकी विशुद्धता, विशदता और व्यापकता को भी प्रमाणित कर रही है। 

     जय हिंदी 🙏

           जय सजल 🙏


   - सुकुमार सुनील 

     फिरोजाबाद, उ. प्र. 

          भारत

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सजल(सत्य से नित डर रहे हैं हम सभी)

 स्वार्थ के पथ पर चरण निज धर रहे हैं हम सभी

सत्य है यह सत्य से नित डर रहे हैं हम सभी। 

स्वयं ही हैं लक्ष्य तो निज हाथ में बंदूक है 

मारने उनको चले हैं मर रहे हैं हम सभी।

तन तो उज्ज्वल हो गए उर-भावना दूषित रही

व्यर्थ का शृंगार यह जो कर रहे हैं हम सभी। 

यह समय का युद्ध है प्रिय जीतना दुर्लभ बहुत 

एक ही तो घाट पानी भर रहे हैं हम सभी। 

ठहर कर मन-पथिक को किंचित सही विश्रांति दो

जब से चले हैं सतत ही विचर रहे हैं हम सभी। 

कर उपेक्षा ब्रह्म-रस की प्यास लेकर रक्त की

शुष्क पीले-पल्लवों से झर रहे हैं हम सभी। 

आँख में पानी बहुत है किंतु अपनों के लिए 

बूँद बन सुकुमार दो-एक ढर रहे हैं हम सभी। 

©️ सुकुमार सुनील

सजल (सच का अनुसंधान करेंगे)

 *अनंतिम पत्रिका हेतु ---*


〰️🍥 *सजल*🍥 〰️

    

*तथ्यों का सम्मान करेंगे*

*सच का अनुसंधान करेंगे*


श्वास हमारी कंठ तुम्हारा

मिलकर मंगलगान करेंगे


*बहने दो ये विषधाराएँ*

*हम शिव हैं विषपान करेंगे*


संकल्पों के पर्वत हैं हम

अंबर का अनुमान करेंगे


निष्ठुरता बलवती हुई है

चलो दया का दान करेंगे


*धरा छोड़ सुकुमार उड़ चले*

*उनकी विफल उड़ान करेंगे*

                  *--- सुकुमार सुनील*

                  फिरोजाबाद (उ०प्र०)

©️सुकुमार सुनील

ग़ज़ल (झूठ का यह वन घना है)

 झूठ का यह वन घना है

देखकर सच अनमना है।

मन मनु़जता का व्यथित है

रण दनुजता से ठना है।

अश्रु से कैसे पिघलता

मनुज लोहे का बना है।

पुष्प हैं कलियाँ भ्रमर हैं

राग ही तो पनपना हैं।

प्रेम बरसे भी तो कैसे

अहम् का अम्बर तना है।

रोटियाँ देंगे तुम्हें

कानून संसद में बना है।

आश्वासन मित्रवर यह

पूर्णतः थोथा चना है।

काँच से 'सुकुमार' निर्मित

भवन तो ये चटखना है।

©️सुकुमार सुनील

ग़ज़ल (ये पागल आवारा मन)

 एक हवा के झोंके जैसा ये पागल आवारा मन

कली-कली और फूल-फूल पर फिरता मारा-मारा मन

गाँव-शहर पर्वत-नदिया नभ धूप-छाँव हर एक परिस्थिति 

जाने कितना भटका  है और भटकेगा बंजारा मन

साँसों का सौदागर बेचे जीवन नये-नये रंग के 

गली-गली आवाज लगाता लौट-लौट दोबारा मन

सारे लोक घूम आता है पलभर में ये द्रुतगामी 

दौड़ रहा बिन-पग बिन-पथ ही है विचित्र हरकारा मन

©️सुकुमार सुनील

ग़ज़ल (स्याह निकले जो कहकर उजाले मिले)

 *उजाले मिले....*


स्याह निकले जो कहकर उजाले मिले

तेज़ छुरियों से भी भोले-भाले मिले।


देखकर हम निशां  जिनके चलते गए

पैर वो दूसरों के हवाले मिले।


देके हमको गये वो जहाँ का पता

उन घरों पर पड़े सिर्फ ताले मिले।


दे रहे थे हमें राह फूलों भरी

चल पड़े तो नदी और नाले मिले।


दर-बदर जन्म भर हम भटकते रहे

तब कहीं पेट को दो निबाले मिले।


उनको बैठे बिठाये गगन मिल गया

चलने वालों को पैरों में छाले मिले।


जान खेतों में 'सुकुमार' लेकर खड़े 

भूख से पस्त वे गाँव वाले मिले।

©️सुकुमार सुनील

ग़ज़ल (वो जो बन ठन के अगर आएगा)

 ज़लज़ला बनके कहर ढाएगा

वो जो बन-ठन के अगर आएगा।


अश्क उस आँख से ढलका जो अगर

पानी, पानी का उतर जाएगा।


आस का दीप जो जला रख्खा है

रोशनी ज़िस्म में भर जाएगा ।


अब न रफ़्तार हवाओं में वो है

ये भी तूफ़ान गुज़र जाएगा। 


ये इधर तो वो उधर इस क़दर

ना जाने कौन किधर जाएगा।


रात कितनी वो सुहानी होगी

चाँद को चाँद नज़र आएगा।


वक्त हसरत को न समझ पाया गर

दिल-ए 'सुकुमार' विखर जाएगा ।

©️सुकुमार सुनील

ग़ज़ल (वही फूल सा मन दे दो)

 वही फूल सा मन दे दो

मुझे मेरा बचपन दे दो।


निश्छल उर जिसमें मुस्काता

वह मधुरिम धड़कन दे दो।


प्राणों की लय में रसवंती

स्वाँसों की  सरगम दे दो।


कोमल तन कोमल भावों की

कोमलकाँत छुअन दे दो।


लौटा दो मेरा भोलापन

कंचों की कचकन दे दो।


अल्हड सा 'सुकुमार' मुझे 

वही निठल्लापन दे दो।

©️सुकुमार सुनील

ग़ज़ल (उम्मीद जगाए रखता है)

 उम्मीद जगाए रखता है... 


वो जो मन में आग लगाए रखता है

श्वासों का संगीत सजाए रखता है।


जब-जब धैर्य बाँध टूटे अड़ जाता है

यानी इक उम्मीद जगाए रखता है।


शुष्क रेत उड़ने लगता शीतल तट पर

पत्थर पिघला नीर बहाए रखता है।


उसका तो अस्तित्व स्वयं ही चंदन है

मेरे 'मैं' से मुझे बचाए रखता है।


पल-पल वह सुकुमार खड़ा है साथ मेरे

हर विपदा में पाँव जमाए रखता है।

©️सुकुमार सुनील

ग़ज़ल (सद्भावनाएँ ही तो हैं)

 अस्त्र इस आपत्ति में सद्भावनायें हीं तो हैं

दूर से दें भी तो क्या? शुभकामनायें ही तो हैं।

स्वयं सुलगाई अगन में जल रहे हैं स्वयं ही

और क्या है हाथ में? संभावनायें ही तो हैं।

मौन थी प्रकृति कि हम संहार करते ही गए

झेलने को हर तरफ अब यातनायें ही तो हैं।

धन और दौलत के लिए करते रहे दुष्कृत्य नित

करने को प्रायश्चित क्षमा और याचनायें ही तो हैं।

नेह-नदियों को पुनः जलमग्न करने के लिए

'सुकुमार' उर में कुछ बची संवेदनायें ही तो हैं।

©️ सुकुमार सुनील 

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2022

ग़ज़ल (प्यार की बातें)

 *प्यार की बातें....*


प्यार अभिसिंचित सुखद संसार की बातें

व्याप्त मधुवन में मृदुल मनुहार की बातें।

जीतना है जीतेंगे हम स्वयं को भी हार 

हार-जीतों से पृथक हैं  प्यार की बातें।।

भीतर से कितने खोखले अब हो गए हैं हम

रहतीं हैं जिव्हा पर सदा तकरार की बातें।

मोड़ लेते हैं नयन कर्तव्य के पथ से 

याद रहतीं हैं महज अधिकार की बातें।

कह रहे हैं लोग सब कड़वी उन्हें बहुत 

साथ जो सच के खड़ीं "सुकुमार" की बातें।

©️सुकुमार सुनील

ग़ज़ल (आज संसद में कि जैसे आँख पानी माँगती है)

 आज़ संसद में कि जैसे आँख पानी माँगती है

सारे उत्तर वह कि जैसे मुँह ज़ुबानी माँगती है।

बैठ बंदर-बाँट करते सरहदों को भूलकर तुम 

छिन गया सिंदूर जो सिंदूरदानी माँगती है।।

स्वार्थरत मज़मे में सारे ये मदारी और कलंदर

रक्त-रंजित माँ सपोलो पानी-पानी माँगती है। 

लूटकर पतझर बनाया है जो तुमने चमन सारा 

ठू़ँठ पर बैठी ज्यों कोयल ऋतु सुहानी माँगती है। 

आपसी सद्भाव सारा चर गये जो नर-पशु ये

प्यार की बंज़र ज़मी ये रूप धानी मा़गती है। 

नीम वाली छाँव में चौपाल वह "सुकुमार" फिर से

तोता-मैना राजा-रानी की कहानी माँगती है।। 

©️सुकुमार सुनील 

ग़ज़ल (रहके काँटों में भी हम बहार रहे)

 रहके काँटों में भी हम बहार रहे

इन मुस्कराहटों के कर्ज़दार रहे।

वो ले गए बेरहमी से तोड़कर 

हम तो टूटकर भी महकदार रहे।

जो जानते तलक न थे हमें, हम

उनकी चाहत के तलबगार रहे।

मोम था कि पिघलता जलता रहा

उज़ालों के और ही हक़दार रहे।

तुमको जाना समझा जब तलक

दिल में काशी और हरिद्वार रहे।

प्यार अपना महज़ था मक़सद

गिरफ्त में नफ़रत की हरबार रहे।

सदा खुशियों से रही अनबन 

दर्द ही अपने ये सदाबहार रहे।

देखे आँसू तो हँसके चले गये

ऐसे कितने ही मददगार रहे।

दिल पे पत्थर नमी आँखों में

होठों पे प्यास थी कि हम "सुकुमार" रहे।।

©️सुकुमार सुनील 

ग़ज़ल (ख्वाब ख्वाब में तुम हो)

 जब से शबाब में तुम हो

ख्वाब-ख्वाब में तुम हो।

पढता हूँ जो भी पोथी

हरेक किताब में तुम हो।

रखूँ कैसे दबाके पन्नों में

गुलाब, गुलाब में तुम हो।

तुमसे रात तुम्हीं से सबेरा

चाँद-ओ आफ़ताब में तुम हो।

न जल न बुझ ही रहा हूँ

आग में आब में तुम हो।

©️ सुकुमार सुनील 

गुरुवार, 8 दिसंबर 2022

ग़ज़ल (नए साल में कुछ यूँ बहार आए)

 इस विलायती नववर्ष 2018 पर आप सब के लिए मंगलकामनायें करतीं कुछ पंक्तियाँ,,,,,,,,,


नए  साल  में  कुछ  यूँ  बहार  आए

फूलों पे रंगत कलियों पे निखार आए


मिट  जाए  नफरत दिलों से सबके

सबको  सभी  पे  प्यार  आए


छट जाए कोहरा आसमां से गम का

जमीं  पे  खुशी  अपार  आए


हाथ न तंग हो मन में उमंग हो

हम सब संग हों न कोई दरार आए


सूझें नए  पथ  सुगम  हों  पुराने

नया साल ऐसा 'सुकुमार ' आए

©️ सुकुमार सुनील 

बुधवार, 7 दिसंबर 2022

ग़ज़ल (तुम को जानवर कहा तो जानवर सहम गए)

 😢😢😢

अमानवीयता कुकृत्य के सभी चरम गये

तुमको जानवर कहा तो जानवर सहम गये ।

चीख जल गयी कराह राख में दबी मिली

अस्मिता गयी कि अस्मिता के सब भरम गये।

सबाल जोकि लाजिमी थे उठ खड़े हुए मगर

जवाब में कहर मिला कि तुम गये औ हम गये ।

मज़हबों को राजनीति ने इस तरह छला

आदमी से आदमी के कायदे-नियम गये।

उड़ रहीं हैं इज्ज़तों की धज्जियाँ सरे- बजार

हिफाज़तों में जो बढे कदम कि दो कदम गये।

प्यार की पवित्रता का पृष्ठ तक न पढ सके 

क्रूर-कृत्य करने छोड़ लाज हर शरम गये।

सभ्यता के तुंग भाल पर लिखा था हिंद आज़

"सुकुमार'' अंग-अंग में अनंग रम गये।।

©️ सुकुमार सुनील 

मंगलवार, 6 दिसंबर 2022

गीत (पास न जिनके आना-पाई)

 अक्षर-अक्षर जले दीप सा शब्द-शब्द मृदु-भोग मिठाई

सुनकर मन जगमग हो जाए ऐसा मधुर गीत दो माई।


जिसमें उत्सव-छटा दीप्त हो जो शुचिता का परिपोषक हो

देहरी-देहरी गंधित कर दे जो पीड़ा का अवशोषक हो

दुविधा में सुविधा बन उतरे हर अभाव में भाव परोसे

जिसको पढ़कर कहीं न सोए भूखा कोई रामभरोसे 

उनकी भी हो शुभ-दीपावलि पास न जिनके आना-पाई।


छद्म भूत-यशगान न जिसमें साँचा गौरवगान स्वरित हो

वर्तमान हो प्रगतिशील नित कल सुखमय हो आशान्वित हो

जिसमें श्रम के श्वेदबिंदु से अभिसिंचित आशा का फल हो

सुलभ सभी को रहें निबाले भले कर्मरत पल प्रतिपल हो

वे भी सौ-सौ दीप जलाएँ जिनके पास न दियासलाई।


स्वयं उतर आए कागज पर  सोख-सोख आँसू की स्याही

स्वयं मुखर हो गाए निस्पृह पीड़ा दुखियों की अनगाई

आकुल अधरों पर धर जाए मंद-मंद मुस्कानें अनगिन 

वह जो मन त्योहारी कर दे और भुला दे सारे दुर्दिन 

धनी और निर्धन की पाटे पल भर में ही चौड़ी खाई।


स्वर्ण-कलश कब सोचे कब हैं मन में रत्नजड़ित आभूषण

पैठे अपने चित्-चिंतन में केवल भूख और भोजन-कण

तृप्ति न दे तो तृप्ति सरीखा जो अतुल्य आभाष जगा दे

तृषा न मेंटे तो पानी में कुछ करने की आग लगा दे। 

और नहीं तो इतना कर दे सिखा सभी को आँखर ढ़ाई। 

©️ सुकुमार सुनील

सोमवार, 5 दिसंबर 2022

गीत (कहाँ रहतीं थीं तब तुम?)

 ओ माथे की शिकन! कहाँ रहतीं थीं तब तुम?


चारों ओर विषम बाधाएँ हौंस-हौंस नाचा करतीं थीं

सब स्थितियाँ और परिस्थिति पद दुःख के बाँचा करतीं थीं।


सारे दुःख थे, हर अभाव पर एक भाव था भारी लेकिन

साथ हमारे पल-प्रतिपल ही शुचि माँ की ममता थी निश-दिन।


अधरों की मुस्कान और चेहरे का खिलना

कैसे रह चुपचाप भला सहतीं थीं तब तुम?

ओ माथे की शिकन! कहाँ रहतीं थीं तब तुम? 


यों तो रिश्तों में तकरारें सदा-सदा होतीं आईं हैं

झगड़े टंटे अनबन उन्मन संस्कृतियाँ ढोती आईं हैं।


पट जाया करतीं थीं खाईं समारोह के आ जाने पर

हो जाते थे सभी इकट्ठे डाँट-डपट समझा जाने पर।


वह माँ की फटकार खरी से खरी सुनाना

कैसे हो नत-भाल सुना करतीं थीं तब तुम?

ओ माथे की शिकन! कहाँ रहतीं थीं तब तुम? 


कहने भर को ही तो केवल बदल रहे हैं युग तदनंतर

पीड़ाओं की सतत बाहिनी बहती आई नित्य-निरंतर ।


कहाँ सुने थे हृदयघात यों पड़ते हमने चलते-फिरते

सारे मनमुटाव मिटते थे काकी के सिर पर कर धरते। 


एक ओर लेजाकर सबके कानों में कुछ-कुछ फुसियाना

क्यों डर माँ की ऐक्य कला से  गैल अलग गहतीं थीं तब तुम? 

ओ माथे की शिकन! कहाँ रहतीं थीं तब तुम? 

©️ सुकुमार सुनील

रविवार, 4 दिसंबर 2022

गीत ( चल आ बरसाएँ प्यार प्रिए)

 यह कुंठित है संसार प्रिए

 चल आ बरसाएँ प्यार प्रिए।


मधुऋतु है मधु के प्याले हैं मधु का है नाम निशान नहीं

पैमाने सारे खण्डित हैं साखी को कोई भान नहीं।

मद है मदहोशी पसरी है आँखों से आँच बरसती है

शुचि निर्विकार निश्छल मृदु-मन पाने को आँख तरसती है।


चहुँओर उमस बस धूल-धुआँ   है घुटन चुभन व्याकुलता है

गुम्फित हैं धरा-गगन जीवन आ सरसाएँ रसधार प्रिए ।


फागुन है फगुआ रंग नहीं रँग है तो रहबर संग नहीं

चहुँओर शोर है घोर बहुत उर में पर उदित उमंग नहीं। 

काँधों तक काँधे आते हैं पर उर से उर हैं दूर-दूर

अधरों पर छद्म-स्मित शोभित अंतर-अंतर है अहम् चूर।


ईर्ष्या है द्वेष और कटुता विकलांग हो गई समरसता 

इन बचे नेह के ठूँठों पर छितराएँ प्रेम-फुहार प्रिए।


बाहर-बाहर है चकाचौंध अंदर सब खाली-खाली है

बाजारों में त्योहार सजे खेतों की हालत माली है। 

है नयन-नयन धुँधला-धुँधला पलकों पर पर्त उदासी की 

आँगन सूने सूनी गलियाँ है चहल-पहल वनवासी सी।


वैभव सन्मुख नतग्रीव हुए वे हास और परिहास सभी

चल अपनेपन की शीतल बिखराएँ कुछ बौछार प्रिए।

©️ सुकुमार सुनील

शनिवार, 3 दिसंबर 2022

गीत (अब क्या बादल बरसाए से?)

 सूख चुका तन प्राण मूल मन अब क्या बादल बरसाए से?


वाट जोहते रैना वीतीं रही चाँदनी सदा सालती

सूरज की निर्मोही किरनें अंग-अंग में आग बालतीं।

आँखों में तुम ही तुम थे बस अब क्या आँसू ढलकाए से?


रही हृदय में सदा याचना सारे स्वप्न मूर्त कर दोगे

नेह-मेह अंतर बरसाकर आँचल में खुशियाँ भर दोगे।

स्वासा ही जब मौन हो गई अब क्या अमरित छलकाए से? 


पोर-पोर में प्यास जगी थी रोम-रोम था तुम्हें ताकता 

भूल गया था सुध-बुध सारी सुधियों में भी एक जाप था।

तुम आओगे, पर न आ सके अब क्या यह विप्लव लाए से?


इतनी भी क्या रही व्यस्तता थोड़ा आते-जाते रहते

सूख न पाता कंठ मीत तुम थोड़ा नेह जताते रहते।

तप्त भस्म पर अब क्या प्रियवर पूरा सागर उतराए से?

©️सुकुमार सुनील

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

गीत (हम आशा के अक्षय-पात्र कब रीते? रीते से)

 मन के हारे हार, जीत है मन के जीते से

हम आशा के अक्षय-पात्र कब रीते? रीते से।


हाँ सच है कंटकाकीर्ण है टहनी-टहनी पर

एक सिरे पर इसके ही खुशबू बहती झर-झर।

मीत प्रतीक्षा के क्षण किसको कब देते हैं चैन?

पल-पल व्याकुल हृदय संग तकते राहें दो नैन।


सहज कहाँ जीवन बगिया में प्रिय गुलाब का खिलना

आए किन्तु बहार समय रितु दुर्दिन बीते से।


सदा समस्या लेकर आती कोई नूतन सीख

सीख सीखकर सीख भला क्यों माँग किसी से भीख?

झंझाओं को ही सह पादप पाते हैं जल-वृष्टि

बुनी हुई यह झंझाओं से मीत समूची सृष्टि।


रिमझिम-रिमझिम बरसेंगीं अनुपम अमृत की लड़ियाँ

तपकर ज्येष्ठ-धूप ही सावन होते तीते से।


आँसू का अनमोल खज़ाना खो मत बने उदास

पाँच कर्म और पाँच ज्ञान के आयुध अपने पास।

दिशा निर्देशक मिले साथ में निज बल बुद्धि विवेक

और खड़ा पर्दे के पीछे अनुपम मालिक एक। 


मिली किसी को कहाँ समय से पूर्व हार और जीत

पककर मधुर हुआ करते हैं फल सब फीके से। 

©️ सुकुमार सुनील

गुरुवार, 1 दिसंबर 2022

गीत (स्वप्न में भी जब तुम्हारा प्रेम पाता हूँ)

 स्वप्न में भी जब तुम्हारा प्रेम पाता हूँ

सच कहूँ सोते हुए भी मुस्कराता हूँ।


अनछुए ही भर लिया हो पाश में जैसे

पुष्प सा वातावरण एहसास में जैसे।

भाव भर उर में सुकोमल याकि वासंती

गीत गुमसुम मैं अबोले गुनगुनाता हूँ।...


उड़ रहा ज्यों आसमानों में तुम्हारे सँग

लग गए हों पर परों में इंद्रधनुषी रँग।

बादलों के झुंड बनकर तन गए हों छत्र 

मैं अ-भीगे प्रीति-पावस में नहाता हूँ।...


नयन भर के मिलन पर ही आम किस्से थे

राह के सँग-सँग हृदय के भी दो हिस्से थे।

देखकर वह बोलती छवि छद्म भर सन्मुख

बोलना मुश्किल बहुत बस देख पाता हूँ।...


चाह पाने की नहीं पा खो दिया जिनको 

क्या करोगे स्वर्ग से आ भुवन भग्नों को।

हो सके आभास भर तुम यह सदा रखना

अनचले मैं दर तुम्हारे नित्य आता हूँ।...


कर्णप्रिय संबोधनों को मुग्धमन मैं सुन 

है असंभव वह निरर्थक मैं रहा जो बुन।

मूँदकर आँखें समय को रोकना दुर्लभ

मूढ़मन मैं यह जतन भी आजमाता हूँ।...


स्वप्न में भी जब तुम्हारा प्रेम पाता हूँ....

©️ सुकुमार सुनील

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