ओ माथे की शिकन! कहाँ रहतीं थीं तब तुम?
चारों ओर विषम बाधाएँ हौंस-हौंस नाचा करतीं थीं
सब स्थितियाँ और परिस्थिति पद दुःख के बाँचा करतीं थीं।
सारे दुःख थे, हर अभाव पर एक भाव था भारी लेकिन
साथ हमारे पल-प्रतिपल ही शुचि माँ की ममता थी निश-दिन।
अधरों की मुस्कान और चेहरे का खिलना
कैसे रह चुपचाप भला सहतीं थीं तब तुम?
ओ माथे की शिकन! कहाँ रहतीं थीं तब तुम?
यों तो रिश्तों में तकरारें सदा-सदा होतीं आईं हैं
झगड़े टंटे अनबन उन्मन संस्कृतियाँ ढोती आईं हैं।
पट जाया करतीं थीं खाईं समारोह के आ जाने पर
हो जाते थे सभी इकट्ठे डाँट-डपट समझा जाने पर।
वह माँ की फटकार खरी से खरी सुनाना
कैसे हो नत-भाल सुना करतीं थीं तब तुम?
ओ माथे की शिकन! कहाँ रहतीं थीं तब तुम?
कहने भर को ही तो केवल बदल रहे हैं युग तदनंतर
पीड़ाओं की सतत बाहिनी बहती आई नित्य-निरंतर ।
कहाँ सुने थे हृदयघात यों पड़ते हमने चलते-फिरते
सारे मनमुटाव मिटते थे काकी के सिर पर कर धरते।
एक ओर लेजाकर सबके कानों में कुछ-कुछ फुसियाना
क्यों डर माँ की ऐक्य कला से गैल अलग गहतीं थीं तब तुम?
ओ माथे की शिकन! कहाँ रहतीं थीं तब तुम?
©️ सुकुमार सुनील