रविवार, 11 दिसंबर 2022

ग़ज़ल (ये पागल आवारा मन)

 एक हवा के झोंके जैसा ये पागल आवारा मन

कली-कली और फूल-फूल पर फिरता मारा-मारा मन

गाँव-शहर पर्वत-नदिया नभ धूप-छाँव हर एक परिस्थिति 

जाने कितना भटका  है और भटकेगा बंजारा मन

साँसों का सौदागर बेचे जीवन नये-नये रंग के 

गली-गली आवाज लगाता लौट-लौट दोबारा मन

सारे लोक घूम आता है पलभर में ये द्रुतगामी 

दौड़ रहा बिन-पग बिन-पथ ही है विचित्र हरकारा मन

©️सुकुमार सुनील

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