स्वप्न में भी जब तुम्हारा प्रेम पाता हूँ
सच कहूँ सोते हुए भी मुस्कराता हूँ।
अनछुए ही भर लिया हो पाश में जैसे
पुष्प सा वातावरण एहसास में जैसे।
भाव भर उर में सुकोमल याकि वासंती
गीत गुमसुम मैं अबोले गुनगुनाता हूँ।...
उड़ रहा ज्यों आसमानों में तुम्हारे सँग
लग गए हों पर परों में इंद्रधनुषी रँग।
बादलों के झुंड बनकर तन गए हों छत्र
मैं अ-भीगे प्रीति-पावस में नहाता हूँ।...
नयन भर के मिलन पर ही आम किस्से थे
राह के सँग-सँग हृदय के भी दो हिस्से थे।
देखकर वह बोलती छवि छद्म भर सन्मुख
बोलना मुश्किल बहुत बस देख पाता हूँ।...
चाह पाने की नहीं पा खो दिया जिनको
क्या करोगे स्वर्ग से आ भुवन भग्नों को।
हो सके आभास भर तुम यह सदा रखना
अनचले मैं दर तुम्हारे नित्य आता हूँ।...
कर्णप्रिय संबोधनों को मुग्धमन मैं सुन
है असंभव वह निरर्थक मैं रहा जो बुन।
मूँदकर आँखें समय को रोकना दुर्लभ
मूढ़मन मैं यह जतन भी आजमाता हूँ।...
स्वप्न में भी जब तुम्हारा प्रेम पाता हूँ....
©️ सुकुमार सुनील
1 टिप्पणी:
मैं अ-भींगे प्रेम - पावस में नहाता हूँ।
प्रेम की सुन्दरतम अनुभूति
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