शुक्रवार, 9 दिसंबर 2022

ग़ज़ल (रहके काँटों में भी हम बहार रहे)

 रहके काँटों में भी हम बहार रहे

इन मुस्कराहटों के कर्ज़दार रहे।

वो ले गए बेरहमी से तोड़कर 

हम तो टूटकर भी महकदार रहे।

जो जानते तलक न थे हमें, हम

उनकी चाहत के तलबगार रहे।

मोम था कि पिघलता जलता रहा

उज़ालों के और ही हक़दार रहे।

तुमको जाना समझा जब तलक

दिल में काशी और हरिद्वार रहे।

प्यार अपना महज़ था मक़सद

गिरफ्त में नफ़रत की हरबार रहे।

सदा खुशियों से रही अनबन 

दर्द ही अपने ये सदाबहार रहे।

देखे आँसू तो हँसके चले गये

ऐसे कितने ही मददगार रहे।

दिल पे पत्थर नमी आँखों में

होठों पे प्यास थी कि हम "सुकुमार" रहे।।

©️सुकुमार सुनील 

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