यह कुंठित है संसार प्रिए
चल आ बरसाएँ प्यार प्रिए।
मधुऋतु है मधु के प्याले हैं मधु का है नाम निशान नहीं
पैमाने सारे खण्डित हैं साखी को कोई भान नहीं।
मद है मदहोशी पसरी है आँखों से आँच बरसती है
शुचि निर्विकार निश्छल मृदु-मन पाने को आँख तरसती है।
चहुँओर उमस बस धूल-धुआँ है घुटन चुभन व्याकुलता है
गुम्फित हैं धरा-गगन जीवन आ सरसाएँ रसधार प्रिए ।
फागुन है फगुआ रंग नहीं रँग है तो रहबर संग नहीं
चहुँओर शोर है घोर बहुत उर में पर उदित उमंग नहीं।
काँधों तक काँधे आते हैं पर उर से उर हैं दूर-दूर
अधरों पर छद्म-स्मित शोभित अंतर-अंतर है अहम् चूर।
ईर्ष्या है द्वेष और कटुता विकलांग हो गई समरसता
इन बचे नेह के ठूँठों पर छितराएँ प्रेम-फुहार प्रिए।
बाहर-बाहर है चकाचौंध अंदर सब खाली-खाली है
बाजारों में त्योहार सजे खेतों की हालत माली है।
है नयन-नयन धुँधला-धुँधला पलकों पर पर्त उदासी की
आँगन सूने सूनी गलियाँ है चहल-पहल वनवासी सी।
वैभव सन्मुख नतग्रीव हुए वे हास और परिहास सभी
चल अपनेपन की शीतल बिखराएँ कुछ बौछार प्रिए।
©️ सुकुमार सुनील
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