सूख चुका तन प्राण मूल मन अब क्या बादल बरसाए से?
वाट जोहते रैना वीतीं रही चाँदनी सदा सालती
सूरज की निर्मोही किरनें अंग-अंग में आग बालतीं।
आँखों में तुम ही तुम थे बस अब क्या आँसू ढलकाए से?
रही हृदय में सदा याचना सारे स्वप्न मूर्त कर दोगे
नेह-मेह अंतर बरसाकर आँचल में खुशियाँ भर दोगे।
स्वासा ही जब मौन हो गई अब क्या अमरित छलकाए से?
पोर-पोर में प्यास जगी थी रोम-रोम था तुम्हें ताकता
भूल गया था सुध-बुध सारी सुधियों में भी एक जाप था।
तुम आओगे, पर न आ सके अब क्या यह विप्लव लाए से?
इतनी भी क्या रही व्यस्तता थोड़ा आते-जाते रहते
सूख न पाता कंठ मीत तुम थोड़ा नेह जताते रहते।
तप्त भस्म पर अब क्या प्रियवर पूरा सागर उतराए से?
©️सुकुमार सुनील
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