सोमवार, 5 दिसंबर 2022

गीत (कहाँ रहतीं थीं तब तुम?)

 ओ माथे की शिकन! कहाँ रहतीं थीं तब तुम?


चारों ओर विषम बाधाएँ हौंस-हौंस नाचा करतीं थीं

सब स्थितियाँ और परिस्थिति पद दुःख के बाँचा करतीं थीं।


सारे दुःख थे, हर अभाव पर एक भाव था भारी लेकिन

साथ हमारे पल-प्रतिपल ही शुचि माँ की ममता थी निश-दिन।


अधरों की मुस्कान और चेहरे का खिलना

कैसे रह चुपचाप भला सहतीं थीं तब तुम?

ओ माथे की शिकन! कहाँ रहतीं थीं तब तुम? 


यों तो रिश्तों में तकरारें सदा-सदा होतीं आईं हैं

झगड़े टंटे अनबन उन्मन संस्कृतियाँ ढोती आईं हैं।


पट जाया करतीं थीं खाईं समारोह के आ जाने पर

हो जाते थे सभी इकट्ठे डाँट-डपट समझा जाने पर।


वह माँ की फटकार खरी से खरी सुनाना

कैसे हो नत-भाल सुना करतीं थीं तब तुम?

ओ माथे की शिकन! कहाँ रहतीं थीं तब तुम? 


कहने भर को ही तो केवल बदल रहे हैं युग तदनंतर

पीड़ाओं की सतत बाहिनी बहती आई नित्य-निरंतर ।


कहाँ सुने थे हृदयघात यों पड़ते हमने चलते-फिरते

सारे मनमुटाव मिटते थे काकी के सिर पर कर धरते। 


एक ओर लेजाकर सबके कानों में कुछ-कुछ फुसियाना

क्यों डर माँ की ऐक्य कला से  गैल अलग गहतीं थीं तब तुम? 

ओ माथे की शिकन! कहाँ रहतीं थीं तब तुम? 

©️ सुकुमार सुनील

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