शुक्रवार, 9 दिसंबर 2022

ग़ज़ल (आज संसद में कि जैसे आँख पानी माँगती है)

 आज़ संसद में कि जैसे आँख पानी माँगती है

सारे उत्तर वह कि जैसे मुँह ज़ुबानी माँगती है।

बैठ बंदर-बाँट करते सरहदों को भूलकर तुम 

छिन गया सिंदूर जो सिंदूरदानी माँगती है।।

स्वार्थरत मज़मे में सारे ये मदारी और कलंदर

रक्त-रंजित माँ सपोलो पानी-पानी माँगती है। 

लूटकर पतझर बनाया है जो तुमने चमन सारा 

ठू़ँठ पर बैठी ज्यों कोयल ऋतु सुहानी माँगती है। 

आपसी सद्भाव सारा चर गये जो नर-पशु ये

प्यार की बंज़र ज़मी ये रूप धानी मा़गती है। 

नीम वाली छाँव में चौपाल वह "सुकुमार" फिर से

तोता-मैना राजा-रानी की कहानी माँगती है।। 

©️सुकुमार सुनील 

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