शनिवार, 30 नवंबर 2024

गीत:हर्ष ही है तिर रहा पर क्रोध में निष्ठुर बहुत है

 02-10-2024

हर्ष ही है तिर रहा पर 

क्रोध में निष्ठुर बहुत है । 


विश्व के सूखे अधर पर

रूप-रस-रँग धर रही है

यह प्रकृति जो जड़-जगत में

चेतना नित भर रही है।

नयन में सानंद जिसके

स्वयं नारायण विभूषित

दिव्य आभूषण समूचे 

कर रहे शृंगार पूरित। 


वह कि जो उस देव निर्मित 

नेह की मंदाकिनी है

हर्ष ही है तिर रहा पर 

क्रोध में निष्ठुर बहुत है। 


मूक इस सूनसान जग के

कंठ को मृदु-गीत देकर

शब्द देकर अर्थ देकर

सृष्टि को संगीत देकर। 

भाव-भाषा-भान देकर

ताल-लय और तान देकर

और फिर जिसकी कमी

अज्ञानता को ज्ञान देकर। 


वह कि जिसने भर दिया है 

रिक्त-जीवन को कला से

जन्म-भर के क्लेश हरने

नूपुरों का स्वर बहुत है।


वह कि जिसकी गोद में हैं

करुणा-ममता-मोद सारे

वह कि जिसके हाथ में 

विज्ञान-वाणिज-शोध सारे। 

पाठ सारे ही निभाती 

है कि जो संपूर्णता से

ध्यान में हलचल न तुम 

कर दीजिएगा मूर्खता से। 


सह न पाओगे कि फिर तुम 

कोप उसका प्रलयकारी 

खत्म करने को तुम्हें बस

दृष्टि का खंजर बहुत है।


वह कि जिसके नयन प्रश्रय 

में जगत हँस-बोलता है

वह कि जिसकी सहमति पर

नेह आँखें खोलता है।

शून्य करने को तुम्हें बस

उपेक्षा पर्याप्त होगी

यह विषम प्राथक्य पीड़ा 

पूर्ण जीवन व्याप्त होगी।


वह कि जो कोमल, सुकोमल

हैं बहुत ही भाव उसके

भले हो पाषाणवत पर

मोम सा अंतर बहुत है।


©️ सुकुमार सुनील

गीत :किंतु यह दीपक अकेला टिमटिमाता जल रहा है

 30-10-2024

किंतु यह दीपक अकेला 

टिमटिमाता जल रहा है 

हाथ अपने मल रहा है। 


पेड़ों के झुरमुट के पीछे

आम के, पीपल के नीचे। 

और उस तालाब में भी

इस विपिन उस बाग में भी। 

जल रही दीपावली है

बज रही भजनावली है। 

पंक्तियों में बैठ सारे 

दीप हिलमिल गा रहे हैं। 

किंतु यह दीपक अकेला

टिमटिमाता जल रहा है। 

हाथ अपने मल रहा है - 2


हर गली में हर भवन में

शुभ लगन में शुभ्र मन में। 

पूर्वजों के थान पर भी

देव के स्थान पर भी। 

चौखटों पर सींकचों में

बालकनियों पर गचों में। 

एक स्वर में दीप सारे

झिलमिलाते गा रहे हैं। 

किंतु यह फिर भी अँधेरा

जाने क्योंकर पल रहा है।

हाथ अपने मल रहा है...


दूर उस नीले क्षितिज पर

हर नदी के पाट, ब्रिज पर।

और सागर के किनारे

झील-झरनों के सहारे। 

जल रही हैं ज्योति जगमग 

और तारे-नयन सँग-सँग। 

मुस्कराते सुगबुगाते 

खिलखिलाते जा रहे हैं। 

किंतु यह दीवा विजन में 

मोम जैसा गल रहा है।

हाथ अपने मल रहा है...


जल रहे जन में विजन में

दासता में बागपन में। 

गंध में दुर्गंध में भी

सहजता में फंद में भी। 

जल रहे छल में कि बल में

जल रहे उर हैं विमल में।

हर तरफ उजियार का ही

लग रहा है बोलबाला। 

शेष यह अँधियार फिर क्यों

मीत रह-रह खल रहा है।

हाथ अपने मल रहा है...

©️ सुकुमार सुनील

गीत : एक दीप धर आ रे जा उनके द्वारे

 29-10-2024

एक दीप धर आ रे, जा उनके द्वारे 

ओऽ रे दुलारे, ओऽ गीत प्यारे

जाऽऽरे जाऽऽरे, जा रे तू जा रे।


बैठे अँधेरे में, टोटों के घेरे में 

साँझ नहीं बीती है, देर है सबेरे में। 

कैसी दिवाली है, पेट सबका खाली है

आस, आस तोड़ गई, दिन के उजेरे में। 


थाली में खील थोड़े, लेकर खिलौने

एक दीप धर आ रे, जा उनके द्वारे

ओ रे दुलारे, ओ गीत प्यारे...


जिनके बहे खेत, सपने हुए रेत

दाना नहीं घर में, बेबस बहुत हेत।

बैक-लोन हाय, ब्याज है खाए 

साहूकार का बेंत, प्राणऽ पिएँ लेत।


पोटली में बाँध एक, पकवान कुछ देख

दीप संग धर आ रे, जा उनके द्वारे।

ओ रे दुलारे, ओ गीत प्यारे...


जाकर बहुत दूर, करके उसे चूर

माथे पे बिंदी, न माँग में सिंदूर।

पापा की तस्वीर, चुन्नू की तकदीर

सीमा ने सीमा को, कर डाला मज़बूर। 


तीन रंग में रंग, 'जय हिंद' लिख संग

एक दीप धर आ रे, जा उनके द्वारे। 

ओ रे दुलारे, ओ गीत प्यारे..


नैन रतनारे, काजर बिना रे

साजन की वाट जोहि, रोवें किवारे

उमड़ि-घुमड़ि जियरा पे, बिरहिन के हियरा पे

बादर छाए हैं, चहुँओर कारे।


मधुरिम आ'भास का, एक दीप आस का

चौखट पे धर आ रे, जा उनके द्वारे।

ओ रे दुलारे, ओ गीत प्यारे...

©️ सुकुमार सुनील

गीत:रिमझिम मंद फुहार तुम्हारा आश्वासन

 28-10-2024

पतझर बीच बहार, तुम्हारा आश्वासन

फूलों की बौछार, तुम्हारा आश्वासन।

तप्त शुष्क अकुलाई, प्यासी धरती पर

रिमझिम मंद फुहार, तुम्हारा आश्वासन।।


पलभर मन का साथ तुम्हारा 

या हाथों में हाथ तुम्हारा। 

दे जाता है इक जीवन सा 

मधुर नयन उत्पात तुम्हारा। 


हाँ एकाकी जीवन-वन में

घोर अँधेरे इस निर्जन में। 

है सदियों का प्यार, तुम्हारा आश्वासन।

रिमझिम मंद फुहार...


वह अनुपम अनुमान तुम्हारा 

नेह-निलय सा ध्यान तुम्हारा।

आत्मीयता से अभिसिंचित 

प्रश्रय जीवनदान तुम्हारा। 


शून्य हो गए बेबस तन में 

जग से हारे अंतर्मन में 

ऊर्जा का संचार, तुम्हारा आश्वासन।

रिमझिम मंद फुहार...


वह अनुप्राणित प्रणय तुम्हारा 

नेह विभूषित हृदय तुम्हारा। 

निर्विकार-शिशु सा निस्पृह चित्त

मृदुल मनोहर सदय तुम्हारा। 


मेरे उजड़े हुए चमन में 

या अभिशापित हृदय-विपिन में। 

जीवन का आधार, तुम्हारा आश्वासन।

रिमझिम मंद फुहार...


पावन पारस-परस तुम्हारा 

और साथ शुभ सरस तुम्हारा ।

प्रातः की झिलमिल लहरों सा

वह सम्मोहक दरस तुम्हारा। 


रेतीले तट के कण-कण में 

या जीवन के सुंदरवन में। 

ज्यों गंगा की धार, तुम्हारा आश्वासन।

रिमझिम मंद फुहार...


चाहा पावन प्यार तुम्हारा 

सुस्मित सा संसार तुम्हारा।

याकि याचना की जीवन पर

पाने को अधिकार तुम्हारा। 


मेरे हर अभिलाषी क्षण में 

अंतर्द्वंदों के हर रण में। 

जीत गया हरबार, तुम्हारा आश्वासन।

रिमझिम मंद फुहार...

©️ सुकुमार सुनील

गीत : काँटों से कहीं गुल की तरह प्रीत न कर लूँ

 25-10-2024 
आना जो कोई ग़म नया तो सोचके आना
शब्दों से सजाकरके तुम्हें गीत न कर लूँ।
पेशा सा हो गया है मेरा तुमको उठाना
काँटों से कहीं गुल की तरह प्रीत न कर लूँ।।

स्याही नहीं तो क्या हुआ तू चल मेरी कलम
लिखनी है तुझको दास्ताँ जो खून से लिख दे।
होने न पाए दर्द की जमात ज़िंदगी
हर दर्द को निखारकर सुकून से लिख दे
हर चीख हर पुकार हर कराह तू सुनले
हर आह को महफिल का मैं संगीत न कर लूँ।
काँटों से कहीं गुल की तरह...

कहता नहीं किसी से मैं लिख लेता हूँ तुझे
ऐ ज़िंदगी तू मौत के दरिया से कम नहीं 
सह करके कुछ भी आ गया है हँसने का हुनर
रोए जो मेरी जाँ कि दिल मेरा हुकुम नहीं 
पलकों पे उतरने से पहले आँसुओ सुनलो
आना सँभलके आँख को मैं सीप न कर लूँ।
काँटों से कहीं गुल की तरह...

जीना सिखा दिया है तुमने मुझको दोस्तो
ओ आँधियो, तूफ़ान ओ, ओ दौरे ज़लज़लो!। 
बहती है मेरे दिल में नज़्मो-ग़ज़ल की गंगा 
रोको तो खुद को रोक लो सँग-सँग न बह चलो।
मैं गीत से नवगीत फिर प्रगीत की तरह
छंदों की तुमको ही नई तरकीब न कर लूँ। 
काँटों से कहीं गुल की तरह...

चल तो रहा हूँ राह पर दुश्वार बहुत हैं
ज़ख़्मों से बह रहे हैं कई तौर के नग्मे। 
हर मोड़ पे खड़े हैं यारो काफिये-रदीफ
ज़िंदगी की बहर जो पग-पग हैं पलटते।
लाचारियों ने रखना सिखा दी है तसल्ली
खामोशियो तुमको ही अपनी जीत न कर लूँ। 
काँटों से कहीं गुल की तरह... 
©️ सुकुमार सुनील

गीत: यह अपना विश्वास प्रेम है

 25-10-2024


आस प्रेम है भास प्रेम है

स्वास और प्रस्वास प्रेम है।

सच कहता हूँ मध्य हमारे 

यह अपना विश्वास प्रेम है।।


अक्सर बातें कम हो पाना

मिलकर आँखें नम हो जाना। 

शुचि सुधियों के चंदन-वन में

स्वासों का सरगम हो जाना।


बैठे-बैठे बुत होने का 

वह स्वप्निल स्वाभास प्रेम है ।

आस प्रेम है भास प्रेम है..


नत हो जाते देख नयन हैं 

अधरों पर केवल कंपन हैं। 

मौन-मौन ही बतियाते हम

मिलकर दोनों अंतर्मन हैं। 


सब मन की मन में रह जाना

यह अपना संत्रास प्रेम है ।

आस प्रेम है भास प्रेम है...


मेले वे हम कब भूले हैं

ऊँचे वे अब तक झूले हैं।

भींच बाँह में इक-दूजे को

हमने जो सँग-सँग झूले हैं।


वह मस्ती वह बेपरवाही

हास और परिहास प्रेम है।

आस प्रेम है भास प्रेम है...


वह मंदिर में दीप जलाना

माता को चूनर पहनाना। 

हर मन्नत में इक-दूजे की 

मनोकामना को मनवाना। 


सारे व्रत सारी पूजाएँ

वह हरइक उपवास प्रेम है।

आस प्रेम है भास प्रेम है...

©️ सुकुमार सुनील

गीत :यादों की झंझाएँ लेकर देखो चक्रवात आया है

 25-10-2024


यादों की झंझाएँ लेकर

देखो चक्रवात आया है 


रौद्र रूप ले लिया पवन ने

रिमझिम ने हुंकार भरी है 

हाँव-हाँव हूआँ-हूआँ की 

पेड़ों ने आवाज धरी है 

गरज रहे हैं धरती-अंबर 

सागर रूठा है 

किसी विरहिणी या विरही का 

दिल फिर टूटा है

भग्न सभी आशाएँ अपनी

या खण्डित विश्वास समूचे

यादों की झंझाएँ लेकर 

देखो चक्रवात आया है। 


अग्निदाह को देख सती के 

शिव का ताण्डव सर्व विदित है 

सत्यभान के प्राण बचाने 

सावित्री का प्रण अविजित है 

प्रणय पवन का किसी लहर से

शायद छूटा है 

इसीलिए लगता लहरों का 

गुस्सा फूटा है 

ज्वारों को बाहों में बाँधे 

भाटों को पग तले कुचलता

हाहाकार उठा सागर से

भू पर वायुपात लाया है।


या प्रकृति के मन में कोई

क्रीड़ा का भूचाल उठा है

धरती-बादल-वायु-सिंधु ने

मिलकर कोई खेल रचा है

लहरों ने मिलकर बेचारे

तट को लूटा है

अस्त-व्यस्त पशु-पक्षी-जंगल

इमली बूटा है

त्राहि-त्राहि चिल्लाता जन-जन

तितर-बितर घट-औघट-पनघट

रूप भयंकर घन प्रलयंकर

लेकर जल-प्रपात आया है।

देखो चक्रवात आया है...


©️ सुकुमार सुनील

गीत - सोच रहा हूँ तब से पल-पल चिर अनुरागी हूँ

 25-10-2024


सोच रहा हूँ तब से पल-पल चिर अनुरागी हूँ 


पग-पग पर संघर्ष सतत हैं

कितने ही दुर्भाग्य साथ हैं। 

कितने स्वप्न ढए आँखों के

खाली कितनी बार हाथ हैं। 

बनकर अश्रु झरे हैं कितने

वे मन के संकल्प सयाने। 

जाने कितने घात मिले हैं 

कदम-कदम जाने-अनजाने। 


एक विरस पतझर था जीवन 

तुम आए बन मलय पवन। 

पलभर साथ तुम्हारा पाकर

मैं बड़भागी हूँ। 

सोच रहा हूँ तब से पल-पल

चिर अनुरागी हूँ


जाने कितने पथ भटके हैं

जाने कितने साहस हारे। 

कितनीं मंजिल पावों तक आ

जाने कब कर गईं किनारे। 

जाने कितने सावन देकर 

आश्वासन के मेघ न बरसे। 

जाने कितने फागुन अपने 

आस लिए रंगों की तरसे। 


एक साथ सावन-फागुन सा

सखे! तुम्हारा मधुर आगमन।

तुमसे मिल आभास हुआ

मैं भी रति-भागी हूँ। 

सोच रहा हूँ तब से पल-पल

चिर अनुरागी हूँ


सारे ही वैफल्य फलित बन

सुंदर सुफल दे रहे हैं। 

सब वैकल्य सभी चिंताएँ

हर, हर शोक ले रहे हैं।

तुम्हें ज्ञात हो याकि नहीं हो

मेरा भूला भाग्य बना। 

त्रुटि सुधारकर भेज दिया है 

विधि ने मुझको तुम्हें रचा। 


भीनी-भीनी नेह-गंध से 

महक उठा मेरा उर-आँगन। 

प्रेम-परीक्षा का शायद 

अंतिम प्रतिभागी हूँ। 

सोच रहा हूँ तब से पल-पल

चिर अनुरागी हूँ 


©️ सुकुमार सुनील

गीत : जाने कितना प्यार सखे

 08-10-2024

हँसी-ठिठोली, नोंक-झोंक कुछ, थोड़ी सी तकरार सखे

छिपा व्यर्थ की इन बातों में खुशियों का अम्बार सखे

जाने कितना प्यार सखे - 2


जाने क्या - क्या कह जाता हूँ तुमसे मैं अपनेपन में 

सत्य मानना बैसे कोई पाप नहीं मेरे मन में 

शायद युग का रूप समूचा अभी नहीं पढ़ पाया हूँ 

अतः स्वयं को तदनुरुप मैं अभी नहीं गढ़ पाया हूँ 

कुछ शैतानी कुछ नटखटपन और बाल-मन शेष है

उर में पीर छिपा मुसकाना मेरी प्रकृति विशेष है



क्षमा मुझे करना हो कोई भूल भूलवश मुझसे तो

तुम्हें छेड़कर बजते मेरी मन-वीणा के तार सखे

छिपा व्यर्थ की इन बातों में...


महज तुम्हारा चुप मुझको ये धुँआ-धुँआ कर जाता है 

एक हताशा सी मेरे मन-उपवन में भर जाता है

भर जाता है तन में सिहरन और हृदय में कोलाहल

कैद कोई पंक्षी पिंजड़े में बैठा हो जैसे व्याकुल 

मन को मन दे दो तन का क्या? तन तो है नश्वर

धरो शब्द अधरों पर है शब्दों का अस्तित्व अमर


लौटा मुझको देना पहुँचे शब्दों से आघात तुम्हें 

शब्द तुम्हारे कुरुक्षेत्र में हैं गीता का सार सखे

छिपा व्यर्थ की इन बातों...


तुमसे मिल संकोच मिटा है थोड़ा सा मन का

उलझा-उलझा पथ सुलझा है थोड़ा जीवन का

तुमसे मिलकर सीख सका हूँ कहना मन की बात

तुम चाहो तो कर सकते हो मुझको भी सुकरात

जग जितना आधुनिक हुआ है तुम भी साथ चले 

तुम नवीन्य की नव आँखों में आँखें डाल पले


वहीं आधुनिक और पुरातन की मैं हूँ मृदु-गंध 

साथ तुम्हारा तनिक मिला तो पा लूँ युग से पार सखे

छिपा व्यर्थ की इन बातों... 

©️ सुकुमार सुनील

गीत: समझ न पाता तो तुमको

 28-05-2024


रूप-गंध-रस से परेय है अनुपम सा आभास शुभे!

देह यष्टि में उलझा रहता समझ न पाता तो तुमको ।


मिली मौन में मुझे मधुरता और अनछुए कोमलता

घंटों तक खोया रहता हूँ सोच तुम्हें ओ! योग-लता

अनदेखे देखे लगते हो और अनसुने सुने-सुने

पुष्प कोई रख गया हथेली पर उपवन ज्यों स्वयं चुने


भटक रहा था पथ आ पहुँचा खुद ही पदचापें सुनकर 

चुनता भी मैं क्या निश्चित था? चुन ही पाता तो तुमको। 

देह यष्टि में उलझा रहता...


नए-नए होकर लगते हो एक पुराना अनुभव तुम

असंभाव्य होकर हो उर के तंतु-तंतु में संभव तुम

बाहों में है बाँह न मेरे हाथों में है हाथ तुम्हारा

हर एकाकीपन में मेरे किन्तु साथ है साथ तुम्हारा


साथ कि बिल्कुल धड़कन जैसा सतत निरंतर स्वर-लयमय

नयन खोजते क्या निश्चित था? पा ही पाता तो तुमको। 

देह यष्टि में उलझा रहता...


प्राप्य और अप्राप्य से परेय राग और वैराग्य न तुम हो

कहाँ कर्म के वशीभूत तुम भाग्य और दुर्भाग्य न तुम हो

प्राणवायु सम सदा समाहित तुम जल-थल में और गगन में

जाने कैसे? किन्तु सुभाषित तन में मन में और जीवन में


सरल विरल अविरल थे तुम तो मलय पवन के झोकों से 

क्या निश्चित था? सासों में निज भर ही पाता तो तुमको। 

देह यष्टि में उलझा..


©️ सुकुमार सुनील

गीत : स्वच्छ परिवेश बनेगा

 स्वच्छ परिवेश बनेगा

स्वच्छ निज देश बनेगा।


घर-आँगन-चौवारे होंगे

स्वच्छ हमारे द्वारे होंगे।

गली-मोहल्ला-सडक स्वच्छ तो

जीवन स्वस्थ हमारे होंगे।।


स्वस्थ तन-मन होंगे तो

स्वस्थ निज देश बनेगा।

स्वच्छ परिवेश...


कालेज क्या विद्यालय होंगे

स्वच्छ सभी कार्यालय होंगे।

सार्वजनिक स्थल सब अपने 

ज्यों पावन देवालय होंगे।।


स्वच्छ नाली-नाले तो 

देश संदेश बनेगा। 

स्वच्छ परिवेश...


ताल-तलैया न्यारे होंगे

निर्मल नदी-नवारे होंगे।

अम्ल न बरसेंगे धरती पर

स्वच्छ समुंदर खारे होंगे।।


स्वच्छ सब हुए ठाँव तो

देश रूपेश बनेगा। 

स्वच्छ परिवेश...

©️ सुकुमार सुनील

गीत:मनुज सब भाग्य टटोलें

 मनुज सब भाग्य टटोलें

ईश भी जय जय बोलें। 


तू जैसे मधुरिम एक फुहार 

तू जैसे सावन की बौछार। 

प्रपातों की तू ही कलकल

तू ही गिरि से गिरती रसधार।। 


स्वास की वीणा की तू तार

तार में सरगम घोलें। 


तू जैसे बागों में तितली

तू जैसे अंबर में बदली।

तू जैसे नदिया में पानी

तू जैसे आँखों में पुतली।। 


नेह की तू ही अविरल धार 

धार या गंगा बोलें। 


तू ही तो जीवन का आधार

तुझी से सृष्टि और संसार।

तेरी रुनझुन से रुनझुन द्वार 

भाव तू ही भावों में प्यार।।


सिंधु-जग तू ही तो पतवार 

पार हम भव से हो लें। 


तू ही तो है जीवन का गान

तुझी से मान और सनमान।

सृष्टि में अनुपम दिव्य विशेष 

तू ही तो विधि का परम विधान।।


खुशी का तू ही तो अंबार

तुझी में खुद को खो लें। 


©️ सुकुमार सुनील

गीत :काँधे से वह बोरी वाला झोला रूठ गया

 14-09-2024

काँधे से वह बोरी वाला झोला रूठ गया.. 


खड़िया पट्टी मैले पाँव

वृद्ध हुई पीपल की छाँव

सरकंडे का विद्यालय से

नाता टूट गया

काँधे से वह बोरी वाला झोला रूठ गया। 


हर अभाव में जीवित भाव

सरल हृदय पर खरा स्वभाव

बढ़ी सभ्यता आगे 

जीवन पीछे छूट गया 

अपनेपन को जाने कौन लुटेरा लूट गया। 


शहर मूँछ पर देता ताव

और गाँव के उखड़े पाँव

हाय! मुकद्दर संवेदन का

बेबस फूट गया

कंक्रीट का वन खेतों को धम-धम कूट गया। 


सुबक-सुबक रोता अलाव

झूम-नाच-गाता अलगाव

विश्वविद्यालय कृषि कर्मों का

रह बस ठूँठ गया

दुखी बहुत चौपाल हौसला टूट अटूट गया। 

©️ सुकुमार सुनील

गुरुवार, 21 नवंबर 2024

गीत : पावन पाँव जहाँ हिन्दी के पड़ते हैं

 14-09-2024

सरस स्वयं वह पुण्य गिरा हो जाती है 

पावन पाँव जहाँ हिन्दी के पड़ते हैं


वर्ण-वर्ण आनंद कंद है शब्द-शब्द मकरंदी है

अमृत के झरने सी कलकल बहती सरिता हिंदी है


सुधा-सिंधु जिसमें हर सरि खो जाती है 

रसमय छींट जहाँ हिंदी के पड़ते हैं

पावन पाँव जहाँ हिन्दी के पड़ते हैं... 


गंगाजल सम पतित पावनी रोम-रोम प्रमुदित करती

सरल सहज सम्मोहक अति यह सबके ही मन को हरती


इसको पूजें यह उनकी हो जाती है

मनहर छंद वही हिन्दी के गढ़ते हैं

पावन पाँव जहाँ हिन्दी के पड़ते हैं... 


इसकी बिंदी चंदन चिंदी भाल हिंद के शोभित है

सारी ध्वनियाँ सब उच्चारण उर हर भाव सुशोभित है


अंतर-अंतर यह करुणा बो जाती है

मंथर-मंथर गीत नदी से बढ़ते हैं

पावन पाँव जहाँ हिन्दी के पड़ते हैं... 


मलय पवन सी सुरभित सरसित यह भारत की थाती है

पूरा भारत दीप सरीखा यह दीपक की बाती है


कर उजियारा अँधियारा धो जाती है

रूप चंद्रिका से हिंदी के चढ़ते हैं 

पावन पाँव जहाँ हिन्दी के पड़ते हैं... 


©️ सुकुमार सुनील

गीत: बस तुम चर्चित लगते हो

 18-07-2024

इस अनजाने अजब शहर में बस तुम चर्चित लगते हो

सब अनजाने और अपरिचित तुम चिर परिचित लगते हो


झाँक रहे हो मन ही मन तुम मेरे मन का कोना-कोना

कहाँ बचा है? कैसा होना? कैसे होना? किसका होना?

एक तुम्हारी अपनी दुनिया एक हमारी अपनी दुनिया 

कैसा पाना? कैसा खोना? 

यह सब है बेमतलब रोना? 


फिर भी जाने क्योंकर ही तुम  मुझको अर्जित लगते हो। 

सब अनजाने और अपरिचित...


स्वप्न नहीं है अपना कोई और न कोई आशा है

कोई स्वार्थ नहीं है शायद और न यश अभिलाषा है

तुम्हें तुम्हारा प्राप्य समूचा मैं अपने में उलझा हूँ

कहाँ योग है? क्या वियोग यह? जाने क्या परिभाषा है? 


फिर भी मन के किसी ठाँव में मुझको अर्चित लगते हो। 

सब अनजाने और अपरिचित...


छल से भरे सिंधु में कोई बचा  हुआ विश्वास जगा हो

या फ़िर किसी जन्म का कोई सोया सा आभास जगा हो

तुमको क्षन साधारन है जो मुझको पुनर्मिलन लगता है

लगता है यह किसी जन्म का प्रारब्धी उपवास जगा हो


तुम्हें ज्ञात हो पुष्प देव पर मुझको अर्पित लगते हो।

सब अनजाने और अपरिचित...

©️ सुकुमार सुनील

गीत : मीत तुम्हारे होकर बैठे हैं

 29-08-2024

हर दुविधा से हाथ हमारे धोकर बैठे हैं

सचमुच हम तो मीत तुम्हारे होकर बैठे हैं। 


ग्रंथ न जाने कितने पलटे पढ़ बस ढाई आँखर पाए

सारे गीत सभी छंदों की तह में ढाई आँखर पाए। 


कहाँ यत्न से ये आते हैं सरल बहुत होकर भी तो

हम इनको पाने में सबकुछ खोकर बैठे हैं। 

सचमुच हम तो...


भूले अपना और पराया जब से प्रेम पंथ अपनाया

सब में मूरत एक समाई सब में एक रुपहली छाया


तुलसी चौरे में उग आया पौधा रूप तुम्हारा ले

उर-आँगन में बीज तुम्हारा बोकर बैठे हैं।

सचमुच हम तो...


सारी बाधाएँ आई हैं हिस्से अपने शुभे सुनो! 

हर असमंजस रहा चिढ़ाता भ्रमित पंथ हर किसे चुनो


चल-चल राह बनाने वाले राह कहाँ से भटकेंगे अब

खाए जीवन में पग-पग पर ठोकर बैठे हैं।

सचमुच हम तो...

©️ सुकुमार सुनील

गीत : सौंप चुका हूँ वाणी का अधिकार तुम्हें

 मचल रहे हैं अब आँखों में संबोधन

सौंप चुका हूँ वाणी का अधिकार तुम्हें।


शब्दों का सौंदर्य कहाँ आड़े आता? 

और कहाँ अब बाध्य वाक्य विन्यास रहा? 

नहीं प्रभावी भाषा का विज्ञान कोई

कहाँ स्वनिम का कोई अब संत्रास रहा? 


कह देता हूँ आँख मूँदकर मन ही मन

मीत उसी क्षण मिल जाता है तार तुम्हें 

सौंप चुका हूँ वाणी का अधिकार तुम्हें...


शुभे तुम्हारी पलकों के कौतूहल में

सजकर सारे अलंकार आ बैठे हैं

नयन-कोर के गीले से आभासों में

सारे रस ही सराबोर हो पैठे हैं


अधरों से अधरों के अपरस आलिंगन 

दे जाते हैं भावों के अम्बार हमें। 

सौंप चुका हूँ वाणी का अधिकार तुम्हें...


लय में और अलय में कोई भेद नहीं 

अब न छंद का फंद कोई उलझाता है

तुक-तानें सब ध्यानमग्न हो बैठी हैं 

यति-विराम अब कोई कब ठहराता है?


नयनों से नयनों का इकटक मौन पठन

कर देता है ग्रंथों का संसार तुम्हें

सौंप चुका हूँ वाणी का अधिकार तुम्हें...


मुझे लाँघने थे भाषा के बाँध सभी

वाक् अर्घ्य कर तुमको मैने मौन चुना

हर व्यंजन में नैन-नक्श मुझको दिखते

हर स्वर में मैने केवल है तुम्हें सुना


सारी भाषाओं के उतरे हैं आनन

लिख बैठा हूँ अक्षर-अक्षर प्यार तुम्हें

सौंप चुका हूँ वाणी का अधिकार तुम्हें...

©️सुकुमार सुनील

गीत :साथ-साथ महकें महकाएँ

आओ साथी नेह भुवन में

साँसों के सुरभित उपवन में

साथ-साथ महकें महकाएँ

पल भर में सदियाँ जी जाएँ।


बीता वर्ष पुराना पूरा

चैन भरे दिन चार न पाए

एक-दूसरे को जी भरकर

पल भर बैठ निहार न पाए

दिन गिनते-गिनते दिन बीते

भादों हरे न, सावन सूखे

रंगहीन सारे रँग तुम बिन 

फागुन रसमय और न रूखे

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा आ गई

चहुँदिशि दिव्य सुगंध छा गई


आओ अलसाए योवन में 

धूल-धूसरित स्मृति-कण में 

धूप-दीप अरु पुष्प चढ़ाएँ

आओ मिलकर अर्घ्य लगाएँ

पलभर में सदियाँ जी जाएँ...


इस नूतन पल नव वेला में

नूतन सोचें नया विचारें

आकुल अंतर डोल रहा है

बैठें नेह-मंत्र उच्चारें

मंदिर के घंटों की धुन में

थोड़ा-थोड़ा खुद को खोकर

और शंख के दीर्घ नाद में

थोड़ा-थोड़ा विस्मृत होकर

सब द्वंद्वों का हवन करें हम

मिलकर खुशबू सघन करें हम


ताल मिलाएँ स्पन्दन में

बैठ प्राण के शुचि स्यंदन में

एक नया संसार सजाएँ

एक-दूसरे के हो जाएँ।

पलभर में सदियाँ जी जाएँ...


नई-नई कोंपल निकली हैं  

नई-नई आशाएँ लेकर

मधु-मिश्रित परिवेश रुचिर नव 

मधुमय परिभाषाएँ लेकर

फुनगी-फुनगी मुदित नयन में 

नभ का स्वप्न सजाए जाए

एक किशोरी रुप-सिंधु से

ज्यों मोती छलकाए गाए

शाखों से आह्लाद बटोरें

तन-मन को मस्ती में बोरें


निर्विकार भोले बचपन में 

स्वर्ग सरीखी शिशु किलकन में 

चलो तोतली बानी गाएँ

नीर-क्षीर से हम मिल जाएँ। 

पलभर में सदियाँ जी जाएँ...


कितने हर्षोल्लास भरी है

गंगा की निर्मल जल धारा

पानी में भी प्यास भरी है

तभी सदा अविरल जल धारा

सदा समांतर रहे किनारे 

शुचि सरिता के आदि-अंत तक

स्वयं विलग रह कर पहुँघाया

मधुर आस को सिंधु कंत तक

लहरों के पर्दे के पीछे 

हम दोनों बाहों को भींचे


बूँद-बूँद ढोकर निज तन में 

सब सहकर प्रमुदित हर क्षन में 

मिलकर कल-कल स्वर सरसाएँ

दूर क्षितिज तक बहते जाएँ। 

पलभर में सदियाँ जी जाएँ.. 

©️ सुकुमार सुनील

गीत: एक बार फिर आई होली

 एक बार फिर आई होली

अधर-अधर मुस्काई होली।


टूटे सूप ढरा निकले हैं

फटे बाँस तक गा निकले हैं।

धरें टोकना सिर पर टूटे

सा रे गा मा पा निकले हैं। 

बरस रहे हैं रँग के बदरा

नाचे पी ठंडाई होली। 

एक बार फिर आई होली...


खाली सारी हुई नालियाँ

अम्मा नाचें मार तालियाँ।

शोभें शुभ-आशीष सरीखीं

भाभी की रंगीन गालियाँ। 

शैशव-योवन और बुढापा 

छान भाँग हुरियाई होली। 

एक बार फिर आई होली...


आज तुम्हारे कल मेरे दर

बारी-बारी से सबके घर। 

रात-रातभर कई दिनों तक 

ढोलक झाँझ दिखाते तेबर। 

मँझले भैय्या ने सपने में 

मेरे आकर गाई होली। 

एक बार फिर आई होली..


पूरनमासी आज हो गई

पड़वा को बँध गई चौपई।

घर-घर घूमे नाचे-गाए

हर अनबन तकरार खो गई।

और दौज को सबने हिलमिल

करी जुहार मनाई होली।

एक बार फिर आई होली...


नैन-नैन पर है मदहोशी 

अकबर जैकी या हो जोशी।

रंग-अबीर-गुलाल मल रही

हलचल में साधे खामोशी। 

नई बहू की झीनी चूनर

रंग परत शरमाई होली।

एक बार फिर आई होली...


लिपे-पुते आँगन बिगरे हैं

हुरदंगा आए सिगरे हैं।

बरस बाद अवसर के पाए

हेला अपनी पर उतरे हैं। 

करें काज अनकरने छैला

इनको दूध-मलाई होली।

एक बार फिर आई होली...


©️ सुकुमार सुनील

गीत :बहुत दिनों के बाद आज मैं गाँव आ रहा हूँ

 01-03-2024

बहुत दिनों के बाद पुनः मैं गाँव आ रहा हूँ

पगडंडी पर सँकरी नंगे पाँव आ रहा हूँ।


सूट-बूट सब धर थैले में घर की तैयारी है

एक पुराने कुर्ते के नीचे धोती धारी है।

थैली में सत्तू हैं भैय्या सँग पीतल का लोटा

काँधे पर खुर्जी लटकी है और हाथ में सोटा।

बाँध मुरैठा मटमैले गमछे का अपने शीश

भरी धूप में चल पेड़ों की छाँव आ रहा हूँ।

पगडंडी पर सँकरी...


भुने हुए कुछ चने लिए हैं बच्चों को ककड़ी

गुड़ की भेली बाबूजी के लिए हाथ पकड़ी।

मिट्टी का है शेर और दो बिल्ली पीली-पीलीं

बिना खिलौनों के होतीं बच्चों की आँखें गीलीं।

कच्ची अमियाँ बीन-बीन भरने को अपनी झोली

अमराई में रुक-रुक ले विश्राम आ रहा हूँ।

पगडंडी पर सँकरी...


इक्का-ताँगा-बैलगाड़ियाँ मिले नहीं पथ में

भला बैठता कैसे बग्गी-रब्बा या रथ में? 

मीत रेत की जगह पड़ी थी डाबर अलबेली

अतः पैदल राह खेत की सीधी है ले ली।

रामजुहार संग कूपों का शीतल जल पी-पी

सूरज से बतियाता अपने ठाँव आ रहा हूँ।

पगडंडी पर सँकरी...


रखी जेब में सारी हिंदी, अँगरेजी भाषा

और अधर पर ठेठ देहाती अपनी ब्रजभाषा।

छोड़-छाड़ सारा शहरीपन एकाकी जीवन 

मन में भरने खुशियाँ सँग खुशियों में अपनापन। 

ठंडी-ठंडी छाँव वही और वही पुरानापन

पाने पावन प्यार लगाने दाँव आ रहा हूँ। 

पगडंडी पर सँकरी...


भीड़भाड़ आपाधापी औ छोड़ चिल्ल पौं-पौं

धूल-धुएँ से भरी हवाएँ बदबू और खौं-खौं।

चिड़ियों की चैं-चैं सुनने को  नदिया की कलकल

साँय-साँय और हूआँ-हूआँ पेड़ों की पल-पल। 

आवाजों के जंगल में तज भड़कीला संगीत 

सुनने कोयल का स्वर कागा काँव आ रहा हूँ।

पगडंडी पर सँकरी... 

©️ सुकुमार सुनील

गीत: नाम निशा है किंतु भोर की करती वह परवस्ती है

 कुछ अल्हड़पन, कुछ बेफिक्री और ज़रा सी मस्ती है

कुछ भोलापन, कूछ शैतानी, ज्यों मौजों में कश्ती है।

अगर इसी का, नाम ज़िंदगी, है तो बस जीकर देखो

पीड़ा में भी, जश्न मनाए, यह इक ऐसी बस्ती है। 

उर-उपवन में, सुमन खिले ज्यों, गंधित मन की क्यारी-क्यारी

नाम निशा है, किंतु भोर की, करती यह परवस्ती है ।


कुछ पागलपन, बहुत जरूरी, होता जीवन जीने को

कुछ ग़म अपने, पास पड़े हों, और भला क्या पीने को?

टुकड़ा-टुकड़ा, जब हो जाए, सपनों की चादर सुंदर

एक नेह का, धागा केवल, इसे चाहिए सीने को।

पलभर में, खुद को समझा ले, इससे और सरल क्या हो? 

बूँद-बूँद ,होकर अम्बर से, रिमझिम झरती है। 

नाम निशा है किंतु भोर की...


थोड़ा परहित, थोड़ी करुणा, थोड़ी दया मिलाई है

बड़े नाज से, प्रभु ने गुड़िया, यह शौकीन बनाई है।

सजना और, सँवरना शायद, स्वयं विधाता से सीखा

अपनेपन के, दे-दे छींटे, शक्ति स्वयं मुस्काई है ।

मेरे पास, कहाँ कुछ भी है, कैसे तुम्हें बधाई दूँ?

कुछ गीतों की, सौगातें हैं, बस शब्दों की हस्ती है ।

नाम निशा है किंतु भोर...

©️ सुकुमार सुनील

गीत: दे सको तो मीत देना स्वर हमारे गीत को भी

 01-09-2023

 दे सको तो मीत देना स्वर हमारे गीत को भी


हर तरफ कोहराम घेरे है कि मन आकुल बहुत है

तप रहा ज्यों ज्येष्ठ प्यासी प्राण की बुलबुल बहुत है।

बह रहा है स्वेद अविरल ऋतु इसे पावस न समझो

सिसकियों के स्वर हैं मध्यम हृदय शोकाकुल बहुत है।।

दो न दो काँधा कि विह्वल आँसुओं को

हो सके तो गुनगुनाना इस अभागी प्रीत को भी। 

दे सको तो मीत...


शब्द का अनुसरण करने को विवश हैं भावनाएँ

सह रहा कोई पथिक जैसे अकारण यातनाएँ।

कंठ रोना चाहता है किंतु रोना भी असंभव

लय रहित है स्वास की गति और बेसुर कामनाएँ।

हाथ पर धरना न धरना हाथ अपना

किंतु क्षणभर आजमाना इस अजब संगीत को भी।

दे सको तो मीत...


ताल सब बेताल हो बेसुध पड़े हैं इस निलय में

बह गई रसवंतिका ही ज्यों अचानक जल प्रलय में।

छंद के अनुबंध सारे शिथिल हो बिखरे पड़े हैं

और  भूषण ज्यों कि रूठे पृथक ही जाकर खड़े हैं।

आना न आना राग सा अनुराग लेकर

किंतु स्मृति में कहीं रखना सदा इस रीत को भी।

दे सको तो मीत...


फिर कभी निर्बाध हो गाना कि कोयल बहक जाए

फिर कभी उन्मुक्त होजाना पपीहा चहक जाए।

बाँसुरी के स्वर समूचे मौन हो तुमको सुनें प्रिय

शंखध्वनि सी सुन करे उच्चार मंत्रों का शुभे! हिय।

गीत तुम गाना न गाना गान जैसा मन बनाना

कर रहे तुमको समर्पित हार क्या हर जीत को भी।

दे सको तो मीत...

©️ सुकुमार सुनील

गीत : इसीलिये मैं जल्दी-जल्दी गाँव नहीं जाता

 17-09-2023

धुँधला कहीं न हो जाए वह मन का मनहर चित्र

इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी गाँव नहीं जाता।


छोटे-छोटे वे थोड़े घर और फूँस के छप्पर

लिपे हुए आँगन गोबर के, मृदा-पात्र, वे खप्पर।

पुते हुए पोता के घर और रंग-बिरंगे चौके

ओटे की दीवारों पर वे बने चित्र मोरों के।

जिसने जोड़ रखा था सबको सोंधी सी सौरभ से

उस पोता-पियरा मिट्टी का ठाँव नहीं पाता।

इसलिए मैं जल्दी-जल्दी...


नवदुर्गा में बना नौत्तिया खेलें बहिन-बुआ सब

प्रातः तीन बजे उठने का चलन समाप्त हुआ अब।

अहा! कहकहे लाँगुरिया के, देवी के भजनों के 

टोल नहीं अब वे सखियों के, दल वे भक्तजनों के।

क्वार-कनागत चंदा-तारे कहाँ   बनें गोबर से

पुरखों के चिह्नों पर लगता दाँव नहीं भाता।

इसलिए मैं जल्दी-जल्दी...


कौन करे मजदूरी आपस में करते थे साझा

सभी स्वाद थे मठ्ठे में ही क्या कोला क्या माज़ा? 

सुबह-शाम काटें सब फसलें मिलकर भाई-भाई

दुपहरिया में बैठ पेड़ के नीचे करें गुनाई।

कृषिकार्यों की पूर्ण पढाई आपस में करने को

आज बैठने कोई बरगद छाँव नहीं आता।

इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी...


ताऊ 'लम्बरदार' औरं खुशदिल बाबा 'मुछियारे'

रसमय करें माहौल प्रधान जी 'रामगुपाल' हमारे।

पूछ पहेली चुप कर देते सबको 'टेलर' भैया

अहा! 'विरन' की ढोलक बज गाती थी ता-ता-थैया।

'बंगाली' ताऊ और 'कारे' खेलें मिल बागौर

आज ठहाका चेहरों पर सुर्खाव नहीं लाता।

इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी...


हुए मलिन बंबा और पटरीं सिमटी-सिमटी पोखर

गुमसुम-गुमसुम पाट कुँओं के चहल-पहल खो-खोकर।

कहने को तो आ पहुँचा है गाँव खेत के पास

लेकिन घर-घर में छिप बैठा है ग्रामत्व उदास।

कंकरीट के गली-घरों में रिश्ते  नाज़ुक हैं

मुँडेरों पर करने कौआ काँव नहीं आता।

इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी...


'अब्बा' के घर के सन्मुख वह झलक राम लीला की

आब-ओ-हवा गाँव की कितनी शुभ थी शुचि-शीला थी।

खेत-खेत में ईख, बैल कोल्हू खींचें  वे मंद

और हौज से उठती वह ताज़े गुड़ की मृदु-गंध।

मटर-कूँकुरा-होरा-गाजर-भुने हुए आलू

सुन होली की गूँज धरा पर पाँव न था आता

इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी...


किसी एक के दुःख में होता पूरा गाँव खड़ा

जन-जन के अंतस में बसता था सद्भाव बड़ा।

छोर-छोर से आकर सब मिल बुर्जी छाते थे

फुल्के और दाल की दावत हँस-हँस खाते थे।

छोड़ो हर्षोल्लास शोक में सकुचाते हैं आज

पर-पीड़ा में पीड़ा वाला भाव नहीं आता। 

इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी... 

©️ सुकुमार सुनील

गीत : लगा हुआ मन इसी जाँच पड़ताल में

 लगा हुआ मन इसी जाँच पड़ताल में

कैसे और कहाँ होंगे किस हाल में?


जब से बिछड़े झील किनारे

नयन राह देखें दुखियारे।

रोम-रोम व्याकुल सूने हैं

सारे महल गली चौवारे।

भटक रही है चाह बाबरी

दीप जलाकर थाल में।

कैसे और कहाँ होंगे...


पग पगडंडी नाप रहे हैं

हाथ निरंतर काँप रहे हैं।

एक अजब सा कोलाहल है 

स्वप्न सलोने हाँफ रहे हैं। 

एक -एक कर उतर रही है 

स्मृति उर के ताल में। 

कैसे और कहाँ होंगे...


भ्रमित कर रहे पवन झकोरे

साँझ दिवस पर डाले डोरे।

पंथ न सूझे अब जीवन का

आकर कोई तो झकझोरे।

जैसे कोई मीन फँसी हो

मछुआरे के जाल में।

कैसे और कहाँ होंगे...


मिलें नहीं पदचिह्न तुम्हारे

ढूँढ-ढूँढ जल-थल-नभ हारे।

महज तुम्ही से ये भासित हैं 

मधुवन-निधिवन-उपवन सारे। 

अटकी है यह दृष्टि शुभे! हर

पात-फूल-फल-डाल में। 

कैसे और कहाँ होंगे...


शायद मैंने एक किरन को

या फिर मुस्काते बचपन को। 

शायद दिन की एक घड़ी को

या फिर शुभग शंख की धुन को।

चाह थामने की कर दी थी

मीत भूल भ्रमजाल में।

कैसे और कहाँ होंगे...

©️सुकुमार सुनील

गीत : क्या हमारा प्यार गंगाजल नहीं है

 क्यों करें संकल्प क्यों सौगंध खाएँ

क्यों अकारण हम किसी देवालय जाएँ।

क्यों दिलाएँ एक-दूजे को भरोसा

जा चुका बेशर्त है जब दिल परोसा।।

क्यों कोई बहती नदी साक्षी बने प्रिय

क्या हमारा प्यार गंगाजल नहीं है?


गंध मकरंदी छुअन में है तुम्हारी 

नयन में डूबी हुई है झील खारी। 

दल गुलाबों के अधर से झर रहे हैं 

सिंधु आँचल में किलोलें कर रहे हैं। 

क्यों करें लहरों से जा अठखेलियाँ हम

क्या तुम्हारा मन बहुत चंचल नहीं है?

क्या हमारा प्यार...


अब करें  किस शुभ घड़ी की हम प्रतीक्षा

शेष है अब कौन सी दूभर परीक्षा।

क्या हमारी चेतनाएँ कह रहीं हैं 

मीत क्या हम एक-दूजे के नहीं हैं ।

क्यों किसी सद्गंथ के हम मंत्र बाचें

क्या हमारी आत्मा निश्छल नहीं है? 

क्या हमारा प्यार...


यज्ञ क्या होगा कोई  इस प्रेम से बढ़

वेद की पावन ऋचाएँ नयन से गढ़।

मौन आहुति स्वाँस की पल-पल लगी है 

भावना उपवास में निश-दिन जगी है। 

और क्या होगा सुफल उस स्वर्ग में प्रिय 

क्या तुम्हारा नेह तुलसी-दल नहीं है? 

क्या हमारा प्यार...

©️ सुकुमार सुनील

गीत: टेकनपुर में बीते ये दो वर्ष न भूलूँगा

पाया है उत्कर्ष यहाँ यह हर्ष न भूलूँगा


टेकनपुर में बीते ये दो वर्ष न भूलूँगा।




हरा-भरा यह गाँव सरीखा है सेना का बास


अपनेपन का यहाँ मिला है भर-भर कर एहसास।


छोटी - छोटी पहाड़ियों पर जाकर मन बहलाना


नहर किनारे कभी अचानक यों ही चलते जाना।


नईं-नईं बोली-भाषाएँ बहुत सुनूँगा पर


ब्रजबुलि से बुंदेली का स्पर्श न भूलूँगा।


टेकनपुर में...




टीसीपी की और मकोड़ा की हाटें सालेंगीं


हाटों में मिल होतीं बातें उर पीड़ा पालेंगीं।


वह अय्अप्पो का जाना वह पासिंग आउट परेड


विद्यालय के भ्रमण जाएँगे उर-तंत्री को छेड़।


बहुत सुहाने चित्र मिलेंगे जग में मुझको पर


आँखों में अंकित जौरासी दर्श न भूलूँगा।


टेकनपुर में...




पावन प्रांगण विद्यालय का और चहकते बाल


कक्ष-कक्ष लाएगा मन में यादों का भूचाल। 


नई सीख लेकर आएँगे सपनों में प्राचार्य 


सच में याद बहुत आएँगे आप सभी आचार्य।


कर्मभूमि पर और मिलेंगे साथी नये मगर


आप सभी का परम आत्मीय पर्श न भूलूँगा।


टेकनपुर में...


©️ सुकुमार सुनील 

Exam Preparation – परीक्षा की तैयारी और AI से सफलता का नया रास्ता | Smart Study Tips

 Exam Preparation – परीक्षा, पढ़ाई और AI : सफलता की नई क्रांति प्रस्तावना परीक्षाएँ हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। चाहे स्कूल- कॉले...