गुरुवार, 21 नवंबर 2024

गीत : पावन पाँव जहाँ हिन्दी के पड़ते हैं

 14-09-2024

सरस स्वयं वह पुण्य गिरा हो जाती है 

पावन पाँव जहाँ हिन्दी के पड़ते हैं


वर्ण-वर्ण आनंद कंद है शब्द-शब्द मकरंदी है

अमृत के झरने सी कलकल बहती सरिता हिंदी है


सुधा-सिंधु जिसमें हर सरि खो जाती है 

रसमय छींट जहाँ हिंदी के पड़ते हैं

पावन पाँव जहाँ हिन्दी के पड़ते हैं... 


गंगाजल सम पतित पावनी रोम-रोम प्रमुदित करती

सरल सहज सम्मोहक अति यह सबके ही मन को हरती


इसको पूजें यह उनकी हो जाती है

मनहर छंद वही हिन्दी के गढ़ते हैं

पावन पाँव जहाँ हिन्दी के पड़ते हैं... 


इसकी बिंदी चंदन चिंदी भाल हिंद के शोभित है

सारी ध्वनियाँ सब उच्चारण उर हर भाव सुशोभित है


अंतर-अंतर यह करुणा बो जाती है

मंथर-मंथर गीत नदी से बढ़ते हैं

पावन पाँव जहाँ हिन्दी के पड़ते हैं... 


मलय पवन सी सुरभित सरसित यह भारत की थाती है

पूरा भारत दीप सरीखा यह दीपक की बाती है


कर उजियारा अँधियारा धो जाती है

रूप चंद्रिका से हिंदी के चढ़ते हैं 

पावन पाँव जहाँ हिन्दी के पड़ते हैं... 


©️ सुकुमार सुनील

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