लगा हुआ मन इसी जाँच पड़ताल में
कैसे और कहाँ होंगे किस हाल में?
जब से बिछड़े झील किनारे
नयन राह देखें दुखियारे।
रोम-रोम व्याकुल सूने हैं
सारे महल गली चौवारे।
भटक रही है चाह बाबरी
दीप जलाकर थाल में।
कैसे और कहाँ होंगे...
पग पगडंडी नाप रहे हैं
हाथ निरंतर काँप रहे हैं।
एक अजब सा कोलाहल है
स्वप्न सलोने हाँफ रहे हैं।
एक -एक कर उतर रही है
स्मृति उर के ताल में।
कैसे और कहाँ होंगे...
भ्रमित कर रहे पवन झकोरे
साँझ दिवस पर डाले डोरे।
पंथ न सूझे अब जीवन का
आकर कोई तो झकझोरे।
जैसे कोई मीन फँसी हो
मछुआरे के जाल में।
कैसे और कहाँ होंगे...
मिलें नहीं पदचिह्न तुम्हारे
ढूँढ-ढूँढ जल-थल-नभ हारे।
महज तुम्ही से ये भासित हैं
मधुवन-निधिवन-उपवन सारे।
अटकी है यह दृष्टि शुभे! हर
पात-फूल-फल-डाल में।
कैसे और कहाँ होंगे...
शायद मैंने एक किरन को
या फिर मुस्काते बचपन को।
शायद दिन की एक घड़ी को
या फिर शुभग शंख की धुन को।
चाह थामने की कर दी थी
मीत भूल भ्रमजाल में।
कैसे और कहाँ होंगे...
©️सुकुमार सुनील
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