गुरुवार, 21 नवंबर 2024

गीत :साथ-साथ महकें महकाएँ

आओ साथी नेह भुवन में

साँसों के सुरभित उपवन में

साथ-साथ महकें महकाएँ

पल भर में सदियाँ जी जाएँ।


बीता वर्ष पुराना पूरा

चैन भरे दिन चार न पाए

एक-दूसरे को जी भरकर

पल भर बैठ निहार न पाए

दिन गिनते-गिनते दिन बीते

भादों हरे न, सावन सूखे

रंगहीन सारे रँग तुम बिन 

फागुन रसमय और न रूखे

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा आ गई

चहुँदिशि दिव्य सुगंध छा गई


आओ अलसाए योवन में 

धूल-धूसरित स्मृति-कण में 

धूप-दीप अरु पुष्प चढ़ाएँ

आओ मिलकर अर्घ्य लगाएँ

पलभर में सदियाँ जी जाएँ...


इस नूतन पल नव वेला में

नूतन सोचें नया विचारें

आकुल अंतर डोल रहा है

बैठें नेह-मंत्र उच्चारें

मंदिर के घंटों की धुन में

थोड़ा-थोड़ा खुद को खोकर

और शंख के दीर्घ नाद में

थोड़ा-थोड़ा विस्मृत होकर

सब द्वंद्वों का हवन करें हम

मिलकर खुशबू सघन करें हम


ताल मिलाएँ स्पन्दन में

बैठ प्राण के शुचि स्यंदन में

एक नया संसार सजाएँ

एक-दूसरे के हो जाएँ।

पलभर में सदियाँ जी जाएँ...


नई-नई कोंपल निकली हैं  

नई-नई आशाएँ लेकर

मधु-मिश्रित परिवेश रुचिर नव 

मधुमय परिभाषाएँ लेकर

फुनगी-फुनगी मुदित नयन में 

नभ का स्वप्न सजाए जाए

एक किशोरी रुप-सिंधु से

ज्यों मोती छलकाए गाए

शाखों से आह्लाद बटोरें

तन-मन को मस्ती में बोरें


निर्विकार भोले बचपन में 

स्वर्ग सरीखी शिशु किलकन में 

चलो तोतली बानी गाएँ

नीर-क्षीर से हम मिल जाएँ। 

पलभर में सदियाँ जी जाएँ...


कितने हर्षोल्लास भरी है

गंगा की निर्मल जल धारा

पानी में भी प्यास भरी है

तभी सदा अविरल जल धारा

सदा समांतर रहे किनारे 

शुचि सरिता के आदि-अंत तक

स्वयं विलग रह कर पहुँघाया

मधुर आस को सिंधु कंत तक

लहरों के पर्दे के पीछे 

हम दोनों बाहों को भींचे


बूँद-बूँद ढोकर निज तन में 

सब सहकर प्रमुदित हर क्षन में 

मिलकर कल-कल स्वर सरसाएँ

दूर क्षितिज तक बहते जाएँ। 

पलभर में सदियाँ जी जाएँ.. 

©️ सुकुमार सुनील

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