18-07-2024
इस अनजाने अजब शहर में बस तुम चर्चित लगते हो
सब अनजाने और अपरिचित तुम चिर परिचित लगते हो
झाँक रहे हो मन ही मन तुम मेरे मन का कोना-कोना
कहाँ बचा है? कैसा होना? कैसे होना? किसका होना?
एक तुम्हारी अपनी दुनिया एक हमारी अपनी दुनिया
कैसा पाना? कैसा खोना?
यह सब है बेमतलब रोना?
फिर भी जाने क्योंकर ही तुम मुझको अर्जित लगते हो।
सब अनजाने और अपरिचित...
स्वप्न नहीं है अपना कोई और न कोई आशा है
कोई स्वार्थ नहीं है शायद और न यश अभिलाषा है
तुम्हें तुम्हारा प्राप्य समूचा मैं अपने में उलझा हूँ
कहाँ योग है? क्या वियोग यह? जाने क्या परिभाषा है?
फिर भी मन के किसी ठाँव में मुझको अर्चित लगते हो।
सब अनजाने और अपरिचित...
छल से भरे सिंधु में कोई बचा हुआ विश्वास जगा हो
या फ़िर किसी जन्म का कोई सोया सा आभास जगा हो
तुमको क्षन साधारन है जो मुझको पुनर्मिलन लगता है
लगता है यह किसी जन्म का प्रारब्धी उपवास जगा हो
तुम्हें ज्ञात हो पुष्प देव पर मुझको अर्पित लगते हो।
सब अनजाने और अपरिचित...
©️ सुकुमार सुनील
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