01-09-2023
दे सको तो मीत देना स्वर हमारे गीत को भी
हर तरफ कोहराम घेरे है कि मन आकुल बहुत है
तप रहा ज्यों ज्येष्ठ प्यासी प्राण की बुलबुल बहुत है।
बह रहा है स्वेद अविरल ऋतु इसे पावस न समझो
सिसकियों के स्वर हैं मध्यम हृदय शोकाकुल बहुत है।।
दो न दो काँधा कि विह्वल आँसुओं को
हो सके तो गुनगुनाना इस अभागी प्रीत को भी।
दे सको तो मीत...
शब्द का अनुसरण करने को विवश हैं भावनाएँ
सह रहा कोई पथिक जैसे अकारण यातनाएँ।
कंठ रोना चाहता है किंतु रोना भी असंभव
लय रहित है स्वास की गति और बेसुर कामनाएँ।
हाथ पर धरना न धरना हाथ अपना
किंतु क्षणभर आजमाना इस अजब संगीत को भी।
दे सको तो मीत...
ताल सब बेताल हो बेसुध पड़े हैं इस निलय में
बह गई रसवंतिका ही ज्यों अचानक जल प्रलय में।
छंद के अनुबंध सारे शिथिल हो बिखरे पड़े हैं
और भूषण ज्यों कि रूठे पृथक ही जाकर खड़े हैं।
आना न आना राग सा अनुराग लेकर
किंतु स्मृति में कहीं रखना सदा इस रीत को भी।
दे सको तो मीत...
फिर कभी निर्बाध हो गाना कि कोयल बहक जाए
फिर कभी उन्मुक्त होजाना पपीहा चहक जाए।
बाँसुरी के स्वर समूचे मौन हो तुमको सुनें प्रिय
शंखध्वनि सी सुन करे उच्चार मंत्रों का शुभे! हिय।
गीत तुम गाना न गाना गान जैसा मन बनाना
कर रहे तुमको समर्पित हार क्या हर जीत को भी।
दे सको तो मीत...
©️ सुकुमार सुनील
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