कुछ अल्हड़पन, कुछ बेफिक्री और ज़रा सी मस्ती है
कुछ भोलापन, कूछ शैतानी, ज्यों मौजों में कश्ती है।
अगर इसी का, नाम ज़िंदगी, है तो बस जीकर देखो
पीड़ा में भी, जश्न मनाए, यह इक ऐसी बस्ती है।
उर-उपवन में, सुमन खिले ज्यों, गंधित मन की क्यारी-क्यारी
नाम निशा है, किंतु भोर की, करती यह परवस्ती है ।
कुछ पागलपन, बहुत जरूरी, होता जीवन जीने को
कुछ ग़म अपने, पास पड़े हों, और भला क्या पीने को?
टुकड़ा-टुकड़ा, जब हो जाए, सपनों की चादर सुंदर
एक नेह का, धागा केवल, इसे चाहिए सीने को।
पलभर में, खुद को समझा ले, इससे और सरल क्या हो?
बूँद-बूँद ,होकर अम्बर से, रिमझिम झरती है।
नाम निशा है किंतु भोर की...
थोड़ा परहित, थोड़ी करुणा, थोड़ी दया मिलाई है
बड़े नाज से, प्रभु ने गुड़िया, यह शौकीन बनाई है।
सजना और, सँवरना शायद, स्वयं विधाता से सीखा
अपनेपन के, दे-दे छींटे, शक्ति स्वयं मुस्काई है ।
मेरे पास, कहाँ कुछ भी है, कैसे तुम्हें बधाई दूँ?
कुछ गीतों की, सौगातें हैं, बस शब्दों की हस्ती है ।
नाम निशा है किंतु भोर...
©️ सुकुमार सुनील
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