मचल रहे हैं अब आँखों में संबोधन
सौंप चुका हूँ वाणी का अधिकार तुम्हें।
शब्दों का सौंदर्य कहाँ आड़े आता?
और कहाँ अब बाध्य वाक्य विन्यास रहा?
नहीं प्रभावी भाषा का विज्ञान कोई
कहाँ स्वनिम का कोई अब संत्रास रहा?
कह देता हूँ आँख मूँदकर मन ही मन
मीत उसी क्षण मिल जाता है तार तुम्हें
सौंप चुका हूँ वाणी का अधिकार तुम्हें...
शुभे तुम्हारी पलकों के कौतूहल में
सजकर सारे अलंकार आ बैठे हैं
नयन-कोर के गीले से आभासों में
सारे रस ही सराबोर हो पैठे हैं
अधरों से अधरों के अपरस आलिंगन
दे जाते हैं भावों के अम्बार हमें।
सौंप चुका हूँ वाणी का अधिकार तुम्हें...
लय में और अलय में कोई भेद नहीं
अब न छंद का फंद कोई उलझाता है
तुक-तानें सब ध्यानमग्न हो बैठी हैं
यति-विराम अब कोई कब ठहराता है?
नयनों से नयनों का इकटक मौन पठन
कर देता है ग्रंथों का संसार तुम्हें
सौंप चुका हूँ वाणी का अधिकार तुम्हें...
मुझे लाँघने थे भाषा के बाँध सभी
वाक् अर्घ्य कर तुमको मैने मौन चुना
हर व्यंजन में नैन-नक्श मुझको दिखते
हर स्वर में मैने केवल है तुम्हें सुना
सारी भाषाओं के उतरे हैं आनन
लिख बैठा हूँ अक्षर-अक्षर प्यार तुम्हें
सौंप चुका हूँ वाणी का अधिकार तुम्हें...
©️सुकुमार सुनील
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