17-09-2023
धुँधला कहीं न हो जाए वह मन का मनहर चित्र
इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी गाँव नहीं जाता।
छोटे-छोटे वे थोड़े घर और फूँस के छप्पर
लिपे हुए आँगन गोबर के, मृदा-पात्र, वे खप्पर।
पुते हुए पोता के घर और रंग-बिरंगे चौके
ओटे की दीवारों पर वे बने चित्र मोरों के।
जिसने जोड़ रखा था सबको सोंधी सी सौरभ से
उस पोता-पियरा मिट्टी का ठाँव नहीं पाता।
इसलिए मैं जल्दी-जल्दी...
नवदुर्गा में बना नौत्तिया खेलें बहिन-बुआ सब
प्रातः तीन बजे उठने का चलन समाप्त हुआ अब।
अहा! कहकहे लाँगुरिया के, देवी के भजनों के
टोल नहीं अब वे सखियों के, दल वे भक्तजनों के।
क्वार-कनागत चंदा-तारे कहाँ बनें गोबर से
पुरखों के चिह्नों पर लगता दाँव नहीं भाता।
इसलिए मैं जल्दी-जल्दी...
कौन करे मजदूरी आपस में करते थे साझा
सभी स्वाद थे मठ्ठे में ही क्या कोला क्या माज़ा?
सुबह-शाम काटें सब फसलें मिलकर भाई-भाई
दुपहरिया में बैठ पेड़ के नीचे करें गुनाई।
कृषिकार्यों की पूर्ण पढाई आपस में करने को
आज बैठने कोई बरगद छाँव नहीं आता।
इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी...
ताऊ 'लम्बरदार' औरं खुशदिल बाबा 'मुछियारे'
रसमय करें माहौल प्रधान जी 'रामगुपाल' हमारे।
पूछ पहेली चुप कर देते सबको 'टेलर' भैया
अहा! 'विरन' की ढोलक बज गाती थी ता-ता-थैया।
'बंगाली' ताऊ और 'कारे' खेलें मिल बागौर
आज ठहाका चेहरों पर सुर्खाव नहीं लाता।
इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी...
हुए मलिन बंबा और पटरीं सिमटी-सिमटी पोखर
गुमसुम-गुमसुम पाट कुँओं के चहल-पहल खो-खोकर।
कहने को तो आ पहुँचा है गाँव खेत के पास
लेकिन घर-घर में छिप बैठा है ग्रामत्व उदास।
कंकरीट के गली-घरों में रिश्ते नाज़ुक हैं
मुँडेरों पर करने कौआ काँव नहीं आता।
इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी...
'अब्बा' के घर के सन्मुख वह झलक राम लीला की
आब-ओ-हवा गाँव की कितनी शुभ थी शुचि-शीला थी।
खेत-खेत में ईख, बैल कोल्हू खींचें वे मंद
और हौज से उठती वह ताज़े गुड़ की मृदु-गंध।
मटर-कूँकुरा-होरा-गाजर-भुने हुए आलू
सुन होली की गूँज धरा पर पाँव न था आता
इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी...
किसी एक के दुःख में होता पूरा गाँव खड़ा
जन-जन के अंतस में बसता था सद्भाव बड़ा।
छोर-छोर से आकर सब मिल बुर्जी छाते थे
फुल्के और दाल की दावत हँस-हँस खाते थे।
छोड़ो हर्षोल्लास शोक में सकुचाते हैं आज
पर-पीड़ा में पीड़ा वाला भाव नहीं आता।
इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी...
©️ सुकुमार सुनील
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