शनिवार, 30 नवंबर 2024

गीत:हर्ष ही है तिर रहा पर क्रोध में निष्ठुर बहुत है

 02-10-2024

हर्ष ही है तिर रहा पर 

क्रोध में निष्ठुर बहुत है । 


विश्व के सूखे अधर पर

रूप-रस-रँग धर रही है

यह प्रकृति जो जड़-जगत में

चेतना नित भर रही है।

नयन में सानंद जिसके

स्वयं नारायण विभूषित

दिव्य आभूषण समूचे 

कर रहे शृंगार पूरित। 


वह कि जो उस देव निर्मित 

नेह की मंदाकिनी है

हर्ष ही है तिर रहा पर 

क्रोध में निष्ठुर बहुत है। 


मूक इस सूनसान जग के

कंठ को मृदु-गीत देकर

शब्द देकर अर्थ देकर

सृष्टि को संगीत देकर। 

भाव-भाषा-भान देकर

ताल-लय और तान देकर

और फिर जिसकी कमी

अज्ञानता को ज्ञान देकर। 


वह कि जिसने भर दिया है 

रिक्त-जीवन को कला से

जन्म-भर के क्लेश हरने

नूपुरों का स्वर बहुत है।


वह कि जिसकी गोद में हैं

करुणा-ममता-मोद सारे

वह कि जिसके हाथ में 

विज्ञान-वाणिज-शोध सारे। 

पाठ सारे ही निभाती 

है कि जो संपूर्णता से

ध्यान में हलचल न तुम 

कर दीजिएगा मूर्खता से। 


सह न पाओगे कि फिर तुम 

कोप उसका प्रलयकारी 

खत्म करने को तुम्हें बस

दृष्टि का खंजर बहुत है।


वह कि जिसके नयन प्रश्रय 

में जगत हँस-बोलता है

वह कि जिसकी सहमति पर

नेह आँखें खोलता है।

शून्य करने को तुम्हें बस

उपेक्षा पर्याप्त होगी

यह विषम प्राथक्य पीड़ा 

पूर्ण जीवन व्याप्त होगी।


वह कि जो कोमल, सुकोमल

हैं बहुत ही भाव उसके

भले हो पाषाणवत पर

मोम सा अंतर बहुत है।


©️ सुकुमार सुनील

गीत :किंतु यह दीपक अकेला टिमटिमाता जल रहा है

 30-10-2024

किंतु यह दीपक अकेला 

टिमटिमाता जल रहा है 

हाथ अपने मल रहा है। 


पेड़ों के झुरमुट के पीछे

आम के, पीपल के नीचे। 

और उस तालाब में भी

इस विपिन उस बाग में भी। 

जल रही दीपावली है

बज रही भजनावली है। 

पंक्तियों में बैठ सारे 

दीप हिलमिल गा रहे हैं। 

किंतु यह दीपक अकेला

टिमटिमाता जल रहा है। 

हाथ अपने मल रहा है - 2


हर गली में हर भवन में

शुभ लगन में शुभ्र मन में। 

पूर्वजों के थान पर भी

देव के स्थान पर भी। 

चौखटों पर सींकचों में

बालकनियों पर गचों में। 

एक स्वर में दीप सारे

झिलमिलाते गा रहे हैं। 

किंतु यह फिर भी अँधेरा

जाने क्योंकर पल रहा है।

हाथ अपने मल रहा है...


दूर उस नीले क्षितिज पर

हर नदी के पाट, ब्रिज पर।

और सागर के किनारे

झील-झरनों के सहारे। 

जल रही हैं ज्योति जगमग 

और तारे-नयन सँग-सँग। 

मुस्कराते सुगबुगाते 

खिलखिलाते जा रहे हैं। 

किंतु यह दीवा विजन में 

मोम जैसा गल रहा है।

हाथ अपने मल रहा है...


जल रहे जन में विजन में

दासता में बागपन में। 

गंध में दुर्गंध में भी

सहजता में फंद में भी। 

जल रहे छल में कि बल में

जल रहे उर हैं विमल में।

हर तरफ उजियार का ही

लग रहा है बोलबाला। 

शेष यह अँधियार फिर क्यों

मीत रह-रह खल रहा है।

हाथ अपने मल रहा है...

©️ सुकुमार सुनील

गीत : एक दीप धर आ रे जा उनके द्वारे

 29-10-2024

एक दीप धर आ रे, जा उनके द्वारे 

ओऽ रे दुलारे, ओऽ गीत प्यारे

जाऽऽरे जाऽऽरे, जा रे तू जा रे।


बैठे अँधेरे में, टोटों के घेरे में 

साँझ नहीं बीती है, देर है सबेरे में। 

कैसी दिवाली है, पेट सबका खाली है

आस, आस तोड़ गई, दिन के उजेरे में। 


थाली में खील थोड़े, लेकर खिलौने

एक दीप धर आ रे, जा उनके द्वारे

ओ रे दुलारे, ओ गीत प्यारे...


जिनके बहे खेत, सपने हुए रेत

दाना नहीं घर में, बेबस बहुत हेत।

बैक-लोन हाय, ब्याज है खाए 

साहूकार का बेंत, प्राणऽ पिएँ लेत।


पोटली में बाँध एक, पकवान कुछ देख

दीप संग धर आ रे, जा उनके द्वारे।

ओ रे दुलारे, ओ गीत प्यारे...


जाकर बहुत दूर, करके उसे चूर

माथे पे बिंदी, न माँग में सिंदूर।

पापा की तस्वीर, चुन्नू की तकदीर

सीमा ने सीमा को, कर डाला मज़बूर। 


तीन रंग में रंग, 'जय हिंद' लिख संग

एक दीप धर आ रे, जा उनके द्वारे। 

ओ रे दुलारे, ओ गीत प्यारे..


नैन रतनारे, काजर बिना रे

साजन की वाट जोहि, रोवें किवारे

उमड़ि-घुमड़ि जियरा पे, बिरहिन के हियरा पे

बादर छाए हैं, चहुँओर कारे।


मधुरिम आ'भास का, एक दीप आस का

चौखट पे धर आ रे, जा उनके द्वारे।

ओ रे दुलारे, ओ गीत प्यारे...

©️ सुकुमार सुनील

गीत:रिमझिम मंद फुहार तुम्हारा आश्वासन

 28-10-2024

पतझर बीच बहार, तुम्हारा आश्वासन

फूलों की बौछार, तुम्हारा आश्वासन।

तप्त शुष्क अकुलाई, प्यासी धरती पर

रिमझिम मंद फुहार, तुम्हारा आश्वासन।।


पलभर मन का साथ तुम्हारा 

या हाथों में हाथ तुम्हारा। 

दे जाता है इक जीवन सा 

मधुर नयन उत्पात तुम्हारा। 


हाँ एकाकी जीवन-वन में

घोर अँधेरे इस निर्जन में। 

है सदियों का प्यार, तुम्हारा आश्वासन।

रिमझिम मंद फुहार...


वह अनुपम अनुमान तुम्हारा 

नेह-निलय सा ध्यान तुम्हारा।

आत्मीयता से अभिसिंचित 

प्रश्रय जीवनदान तुम्हारा। 


शून्य हो गए बेबस तन में 

जग से हारे अंतर्मन में 

ऊर्जा का संचार, तुम्हारा आश्वासन।

रिमझिम मंद फुहार...


वह अनुप्राणित प्रणय तुम्हारा 

नेह विभूषित हृदय तुम्हारा। 

निर्विकार-शिशु सा निस्पृह चित्त

मृदुल मनोहर सदय तुम्हारा। 


मेरे उजड़े हुए चमन में 

या अभिशापित हृदय-विपिन में। 

जीवन का आधार, तुम्हारा आश्वासन।

रिमझिम मंद फुहार...


पावन पारस-परस तुम्हारा 

और साथ शुभ सरस तुम्हारा ।

प्रातः की झिलमिल लहरों सा

वह सम्मोहक दरस तुम्हारा। 


रेतीले तट के कण-कण में 

या जीवन के सुंदरवन में। 

ज्यों गंगा की धार, तुम्हारा आश्वासन।

रिमझिम मंद फुहार...


चाहा पावन प्यार तुम्हारा 

सुस्मित सा संसार तुम्हारा।

याकि याचना की जीवन पर

पाने को अधिकार तुम्हारा। 


मेरे हर अभिलाषी क्षण में 

अंतर्द्वंदों के हर रण में। 

जीत गया हरबार, तुम्हारा आश्वासन।

रिमझिम मंद फुहार...

©️ सुकुमार सुनील

गीत : काँटों से कहीं गुल की तरह प्रीत न कर लूँ

 25-10-2024 
आना जो कोई ग़म नया तो सोचके आना
शब्दों से सजाकरके तुम्हें गीत न कर लूँ।
पेशा सा हो गया है मेरा तुमको उठाना
काँटों से कहीं गुल की तरह प्रीत न कर लूँ।।

स्याही नहीं तो क्या हुआ तू चल मेरी कलम
लिखनी है तुझको दास्ताँ जो खून से लिख दे।
होने न पाए दर्द की जमात ज़िंदगी
हर दर्द को निखारकर सुकून से लिख दे
हर चीख हर पुकार हर कराह तू सुनले
हर आह को महफिल का मैं संगीत न कर लूँ।
काँटों से कहीं गुल की तरह...

कहता नहीं किसी से मैं लिख लेता हूँ तुझे
ऐ ज़िंदगी तू मौत के दरिया से कम नहीं 
सह करके कुछ भी आ गया है हँसने का हुनर
रोए जो मेरी जाँ कि दिल मेरा हुकुम नहीं 
पलकों पे उतरने से पहले आँसुओ सुनलो
आना सँभलके आँख को मैं सीप न कर लूँ।
काँटों से कहीं गुल की तरह...

जीना सिखा दिया है तुमने मुझको दोस्तो
ओ आँधियो, तूफ़ान ओ, ओ दौरे ज़लज़लो!। 
बहती है मेरे दिल में नज़्मो-ग़ज़ल की गंगा 
रोको तो खुद को रोक लो सँग-सँग न बह चलो।
मैं गीत से नवगीत फिर प्रगीत की तरह
छंदों की तुमको ही नई तरकीब न कर लूँ। 
काँटों से कहीं गुल की तरह...

चल तो रहा हूँ राह पर दुश्वार बहुत हैं
ज़ख़्मों से बह रहे हैं कई तौर के नग्मे। 
हर मोड़ पे खड़े हैं यारो काफिये-रदीफ
ज़िंदगी की बहर जो पग-पग हैं पलटते।
लाचारियों ने रखना सिखा दी है तसल्ली
खामोशियो तुमको ही अपनी जीत न कर लूँ। 
काँटों से कहीं गुल की तरह... 
©️ सुकुमार सुनील

गीत: यह अपना विश्वास प्रेम है

 25-10-2024


आस प्रेम है भास प्रेम है

स्वास और प्रस्वास प्रेम है।

सच कहता हूँ मध्य हमारे 

यह अपना विश्वास प्रेम है।।


अक्सर बातें कम हो पाना

मिलकर आँखें नम हो जाना। 

शुचि सुधियों के चंदन-वन में

स्वासों का सरगम हो जाना।


बैठे-बैठे बुत होने का 

वह स्वप्निल स्वाभास प्रेम है ।

आस प्रेम है भास प्रेम है..


नत हो जाते देख नयन हैं 

अधरों पर केवल कंपन हैं। 

मौन-मौन ही बतियाते हम

मिलकर दोनों अंतर्मन हैं। 


सब मन की मन में रह जाना

यह अपना संत्रास प्रेम है ।

आस प्रेम है भास प्रेम है...


मेले वे हम कब भूले हैं

ऊँचे वे अब तक झूले हैं।

भींच बाँह में इक-दूजे को

हमने जो सँग-सँग झूले हैं।


वह मस्ती वह बेपरवाही

हास और परिहास प्रेम है।

आस प्रेम है भास प्रेम है...


वह मंदिर में दीप जलाना

माता को चूनर पहनाना। 

हर मन्नत में इक-दूजे की 

मनोकामना को मनवाना। 


सारे व्रत सारी पूजाएँ

वह हरइक उपवास प्रेम है।

आस प्रेम है भास प्रेम है...

©️ सुकुमार सुनील

गीत :यादों की झंझाएँ लेकर देखो चक्रवात आया है

 25-10-2024


यादों की झंझाएँ लेकर

देखो चक्रवात आया है 


रौद्र रूप ले लिया पवन ने

रिमझिम ने हुंकार भरी है 

हाँव-हाँव हूआँ-हूआँ की 

पेड़ों ने आवाज धरी है 

गरज रहे हैं धरती-अंबर 

सागर रूठा है 

किसी विरहिणी या विरही का 

दिल फिर टूटा है

भग्न सभी आशाएँ अपनी

या खण्डित विश्वास समूचे

यादों की झंझाएँ लेकर 

देखो चक्रवात आया है। 


अग्निदाह को देख सती के 

शिव का ताण्डव सर्व विदित है 

सत्यभान के प्राण बचाने 

सावित्री का प्रण अविजित है 

प्रणय पवन का किसी लहर से

शायद छूटा है 

इसीलिए लगता लहरों का 

गुस्सा फूटा है 

ज्वारों को बाहों में बाँधे 

भाटों को पग तले कुचलता

हाहाकार उठा सागर से

भू पर वायुपात लाया है।


या प्रकृति के मन में कोई

क्रीड़ा का भूचाल उठा है

धरती-बादल-वायु-सिंधु ने

मिलकर कोई खेल रचा है

लहरों ने मिलकर बेचारे

तट को लूटा है

अस्त-व्यस्त पशु-पक्षी-जंगल

इमली बूटा है

त्राहि-त्राहि चिल्लाता जन-जन

तितर-बितर घट-औघट-पनघट

रूप भयंकर घन प्रलयंकर

लेकर जल-प्रपात आया है।

देखो चक्रवात आया है...


©️ सुकुमार सुनील

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