बुधवार, 30 नवंबर 2022

गीत (मीत प्रथम अभिसार अमर हो)

 मीत प्रथम अभिसार अमर हो

यह सुरम्य संसार अमर हो। 

नेह-तन्तु ने तुमको जोड़ा

वह जीवन का तार अमर हो।।

पुनः पहाड़ों से निसृत यह, बहे प्रेम की गंगा अविरल

झरते रहें नेह-निर्झर नित, पग-पग पर सरसे ध्वनि कल-कल।

मानवती हो घड़ी प्रणयिनी, मधुरिम यह रसधार अमर हो।


पथ हो सहज सुगम सुंदरतम, खिले रहें मन-सुमन तुम्हारे 

सदा समर्पण साथ निभाए, चाह, सतत आरती उतारे।

ठहरे रहें रूचिर मधुऋतु क्षण, यह शुचि अनहद प्यार अमर हो।


निशि-बासर हो गति प्रगतिमय,सुख-समृद्धि भरे कुलांचें

पावन शीतल साथ तुम्हारा ,दूर करे कटुता की आँचें।

एक-दूसरे की आँखों में, पाई जो, मनुहार अमर हो।

मीत प्रथम अभिसार अमर हो... 

©️सुकुमार सुनील

मंगलवार, 29 नवंबर 2022

गीत (रंग-रँगीला अम्बर)

 रंग-बिरंगी धरा हुई है

रंग-रँगीला अम्बर

दशों-दिशाएँ फाग सुनाएँ

नाचें मंथर-मंथर।


डाल-डाल पर मस्ती छाई झूम रहे वन-उपवन

अलसी खनके और चने के पदचापों में रुन-झुन। 

महक रहा महुआ आमों का अंग-अंग बौराया 

अहा! पलाशों की फुनगी पर होली का मद छाया। 


कोयल घोल रही कलरव में अपना मधुरिम गान

सुन आँगन-घर बाग-विपिन से नीरवता छूमंतर।....

रंग-बिरंगी धरा हुई है रंग-रँगीला अम्बर... 


तन-मन में उन्माद जगा है बाल-वृद्ध-योवन के

सम्मोहन भर रहा कुलांचें पंख लगे बचपन के।

मनभावन के रंग-रचे हैं मनभावन के सपने

रूप-गाँव के मेले में प्रिय ढूँढें अपने-अपने। 


छलक रहीं हैं नेह-कमोरीं  गैल-गली-दालान

भीग रहे रँग-रस-रिमझिम में सबके पावन अंतर ।....

रंग-बिरंगी धरा हुई है रंग-रँगीला अम्बर ।.... 


ढ़ोल बजाते जुम्मन चाचा और बटेश्वर चँग है

हरबिंदर ने भी बाँधा कस अपना मृदुल मृदँग है ।

लगा एंथनी भी कुछ गाने एक अनोखी धुन से

सा-रे-गा-मा-पा-धा-नी सब साथ लिए चुन-चुन के। 


सारे स्वर मिल करने निकले कटुता का संधान 

हुई प्रवाहित समरसता की सलिल-सलिल अभ्यंतर।....

रंग-बिरंगी धरा हुई है रंग-रँगीला अम्बर ।.... 


नगर-गाँव घट-औघट-पनघट सब पर मधु छाया है

तीक्ष्ण-धूप में जैसे सुख का बादल गहराया है।

बैर-भाव सब हुए तिरोहित सब ही हिले-मिले हैं

चुटकी-भर के इस गुलाल से कितने सुमन खिले हैं।


वर्षों की तकरारें क्षण में भूल गईं सब ध्यान 

प्रीति-फुहारें झरतीं झर-झर रह-रहकर तदनंतर।...

रंग-बिरंगी धरा हुई है रंग-रँगीला अम्बर ।...

©️ सुकुमार सुनील 

सोमवार, 28 नवंबर 2022

गीत (बधाई में तुम्हें कुछ गीत देदूँ)

 सोचता हूँ मैं बधाई में तुम्हें कुछ गीत देदूँ

भाव शब्दों में भरूँ और युग-युगों की प्रीत देदूँ।


अग्नि की कर परिक्रमा जो आचमन तुमने लिए हैं

क्षण जो मंत्रोच्चार के संँग साथ में तुमने जिए हैं।

गाँठ जो बाँधी किसी देवांगना ने शुभ घड़ी में

वह रहे अनवरत गुँथित नेह की अनुपम लड़ी में। 


थिरकतीं हैं सुनके जिसको वेद की पावन ऋचाएं 

सुन सको तुम भी निरंतर मौन वह संगीत देदूँ।... 


कर चुके हो मगन-मन से पुष्पहारों को समर्पित

या कुँवारी माँग में शुचि अमिट वह सिंदूर अर्पित। 

धर हथेली पर हथेली ईश को साक्षी समझकर

सात वचनों का लिया जो आपने संकल्प मिलकर।


पूर्ण हों शुभकामनाएँ व्योम से उर के प्रकीर्णित

पीर पर हरएक तुमको चाहता चिर जीत देदूँ।...


चंदनी अनुभूति वाला अमर वह स्पर्श होवे

उन प्रथम संबोधनों से कल्प तक हर रात शोभे।

महकता शाश्वत रहे वह नम गुलाबों का समंदर

गाँस में गस नेह की हों अंतरों से दूर अंतर


माँगते थे अर्चनाओं में मिले इक-दूसरे को

कल्पनाओं में विचरता वह तुम्हें मनमीत देदूँ। ...

सोचता हूँ मैं बधाई में तुम्हें कुछ गीत देदूँ...

©️ सुकुमार सुनील 

रविवार, 27 नवंबर 2022

गीत (नफ़रत थोड़ी प्यार बहुत है)

 01-11-2021


देख सको तो देखो जग में नफ़रत थोड़ी प्यार बहुत है।


एक नमूना लेकर देखो प्रेमी अपने डलियों भर हैं 

जिनसे अपना मन-मुटाव है वे तो चंद अँगुलियों पर हैं।

गाँव गली घर आँगन चौखट अपनी गैय्या अपना बछरा

देखो खेत मेंड़ बट-छाया कितना अपनापन है पसरा। 


होंगे तो कुछ गैर यहाँ बस अपनों का अम्बार बहुत है। 

देख सको तो... 


थोड़ा चलो और मुड़ देखो सबकुछ अपना सा दिखता है 

जाकर दूर देश में कल्लू सबको अपना ही लिखता है। 

मिट्टी अपनी पानी अपना अपना वतन और है भाषा 

सदा बिछड़कर सीखी हमने अपनेपन की है परिभाषा। 


कुछ रिश्तों में बँधे हुए हम किंतु बड़ा संसार बहुत है। 

देख सको तो ... 


माना सिंधु बहुत है खारा  अग्रगण्य पर नीर लवण से

आईं-गईं बहुत संस्कृतियां सदा सृजन ही विजित क्षरण से

नाहक उलझो दुर्गंधों से आओ बाहर खुली हवा लो

यह भी कोई व्याधि? भला तुम इसकी भी क्या खाक दवा लो? 


नदिया घाटी पर्वत उपवन खुशबू घुली बयार बहुत है।

देख सको तो ...


दृष्टि नहीं संकुचित मीत तो फिर क्यों पीड़ाएं पाते हो?

इस पूरे चर-अचर जगत को नयनों में कमतर लाते हो।

इच्छाएँ बलवती बहुत हैं इनको ऊर्ध्वगमन तक लाओ

सात समंदर मुस्काएँगे पर तो तुम अपने फैलाओ।


जितनी हो सामर्थ्य उड़ो तुम अम्बर का विस्तार बहुत है ।

देख सको तो ...

©️ सुकुमार सुनील

शनिवार, 26 नवंबर 2022

गीत (मृत्यु की आवाज कानों में पड़ी है)

 21-07-2021 कोविड द्वितीय लहर के ताण्डव को देखकर.... 😢 मेरे उर-उदधि से छलका यह प्रलाप *गीत* 🙏


आज मैं अवसाद लिखने जा रहा हूँ

मृत्यु की आवाज कानों में पड़ी है...


सुन सको तो सुनलो तुम हुंकार भरती आ रही है

घोर अट्टाहास करती शौर्य निज दिखला रही है


है रोकना दुर्लभ बहुत सब अस्त्र विष धारे हुए हैं 

और हम सब पूर्व से ही स्वयं में हारे हुए हैं 

भील सन्मुख कृष्ण से असहाय हैं हम

घुट रहा है दम कि प्राणों की पड़ी है। 

मृत्यु की आवाज...


हैं भयाभय गूँज से सारी दिशाएँ और घर-घर में यहाँ मातम पड़ा है 

बाहु ही हैं शिथिल फिर कैसे उठाएँ शस्त्र हर निढाल हो बेसुध खड़ा है। 


दिग्भ्रमित से हो गये हैं यत्न सारे पाँव जैसे दलदलों में गढ़ रहे हैं 

घेर डाले शत्रु ने हैं द्वार सारे और आँखें मूँदकर हम बढ़ रहे हैं। 

साधनों से हैं घिरे निरुपाय हैं पर

आई ज्यों अभिमन्यु की अंतिम घड़ी है। 

मृत्यु की आवाज...


हो चलीं हैं अब विफल सब मंत्रणाएं शत्रुदल द्रुतवेग बढ़ता आ रहा है

छा गया चहुंओर हाहाकार जैसे काल बन विकराल चढ़ता आ रहा है।


आस का विश्वास थर-थर काँपता है नीलकंठी ईश शायद रुष्ट ही है

विष विषाणु का कि हो अब पान कैसे? समझना अपने लिए तो क्लिष्ट ही है। 

है पिरो निर्मित कि जीवन-मोतियों से

बिखरने वाली समय की यह लड़ी है। 

मृत्यु की आवाज...


देख निश-दिन दहकते श्मशान हा! हा! आत्मबल हो क्षीण डोला जा रहा है

तिर रहे तन पार्थिव मंदाकिनी में शेष है जो धैर्य बोला जा रहा है।


हर गली घर गाँव में सुन रुदन, क्रंदन मृत्यु के ही आ रहे विभ्रांत सपने

धिक्! मशीनें दे रहीं अंतिम विदाई स्वयं लाशों से खड़े हैं दूर अपने।

गर्जना घनघोर घर्-घर् नाद करती आ रही प्राचीर पर अनथक चढ़ी है। 

मृत्यु की आवाज... 

©️ सुकुमार सुनील

शुक्रवार, 25 नवंबर 2022

गीत (एक तुम्हारा होने भर को...)

 आज बहुत हारा हारा हूँ

अपनेपन ने ललकारा हूँ।

बाहर हर मुश्किल जीती है

भीतर खुद का ही मारा हूँ।।


शायद मुझसे भूल हुई थी बिना शर्त नेह बाँटा था

छल से युक्त विषम खाई को कोमल स्वप्नों से पाटा था।

हाँ हाँ बड़ी भूल थी मेरी सबको स्वयं सरीखा समझा

इस दिमाग से चलते युग में मैं  उर-पग से था आ धमका।।

 

खाता-बहियों वाले युग में स्मृतियों को स्वीकारा हूँ।......


कहाँ पता था? मुझको आगे इतनी वृहद विषम खाई है

मेरे हिस्से स्रोत-बिंदु से ही पग-पग ठोकर आई है।

अवरोधों को दरकिनार कर हर गुत्थी सुलझाता आया

छद्म-विजय के मोहपाश में खुद को ही उलझाता आया।। 


सारे पर्वत लाँघ गया पर तृण से हारा हरकारा हूँ।......


बहुत मगन था यही सोचकर तुम सप्तम् सोपान चढ़ोगे

तेरा-मेरा भेद भुलाकर साझा लक्ष्य विधान करोगे।

किया पराया तुमने लेकिन तुच्छ सफलता पर इतराकर

इतना भला हँसे तुम इतना नत मम् शीश ज़रा सा पाकर।।


धैर्य धरो! मैं बुझा नहीं हूँ धूल-धूसरित अंगारा हूँ।......


खैर! विजय हो तुम्हें मुबारक मैं प्रसन्न पराजित होकर

बहुत कठिन संबंध बचाना कुछ भी पाकर कुछ भी खोकर।

लघुता का भी अपना कद है प्रभुता को झुकना पड़ता है

जग की रक्षा हेतु ईश को भी बौना होना पड़ता है।।


एक तुम्हारा होने भर को हर समझौते पर वारा हूँ।......

©️ सुकुमार सुनील

गुरुवार, 24 नवंबर 2022

गीत (जल-जल अक्षर-दीप न जब तक घर-घर में उजियार करेंगे)

 जल-जल अक्षर-दीप न जब तक घर-घर में उजियार करेंगे

अँधियारे मौसम ये तब तक यों ही अत्याचार करेंगे। 


हा! हा! ये निर्दयी निबाले जाने कितना दौड़ाएँगे

जाने कितनी प्रतिभाओं को निर्मम पेट निगल जायेंगे।

जाने कितने स्वप्न रेल के पाँव तले रोंदे जायेंगे

जाने कितने प्राण हवा के झोकों के सँग उड़ जायेंगे।

जब तक अंतर-नेत्र न खुलकर अपना भला-बुरा देखेंगे

तब तक वे परपोषी केवल पशुता का व्यवहार करेंगे।


वरदानों-अभिशापों वाले मनगढ़ंत बँटवारे देखे

श्रमिकों के अनवरत अथक श्रम हारे-से बेचारे देखे।

श्रम को भीख माँगते देखा छल के बारे-न्यारे देखे

लाचारों की लाशों पर उन्मत्त महल-चौबारे देखे।

देख न पाये भोले जन वे चमत्कार की चकाचौंध में

हम जिन पर बलिहारी हैं वे हम पर ही प्रतिवार करेंगें।


देश-धर्म की बातों वाले नए-नए व्यापार चले हैं

भीतर घुप्प अँधेरों वाले घर के द्वारे दिये जले हैं। 

आँखों के कृत्रिम आँसू ने भाव हजारों बार छले हैं

बगुले पीताम्बर ओढे ये काग हंस के रूप ढले  हैं। 

आश्वासन की विजय पताकाएँ अम्बर को चूम रहीं हैं

ऐसे में हम छ्द्म विजय ही तो केवल स्वीकार करेंगे।

©️सुकुमार सुनील

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