जल-जल अक्षर-दीप न जब तक घर-घर में उजियार करेंगे
अँधियारे मौसम ये तब तक यों ही अत्याचार करेंगे।
हा! हा! ये निर्दयी निबाले जाने कितना दौड़ाएँगे
जाने कितनी प्रतिभाओं को निर्मम पेट निगल जायेंगे।
जाने कितने स्वप्न रेल के पाँव तले रोंदे जायेंगे
जाने कितने प्राण हवा के झोकों के सँग उड़ जायेंगे।
जब तक अंतर-नेत्र न खुलकर अपना भला-बुरा देखेंगे
तब तक वे परपोषी केवल पशुता का व्यवहार करेंगे।
वरदानों-अभिशापों वाले मनगढ़ंत बँटवारे देखे
श्रमिकों के अनवरत अथक श्रम हारे-से बेचारे देखे।
श्रम को भीख माँगते देखा छल के बारे-न्यारे देखे
लाचारों की लाशों पर उन्मत्त महल-चौबारे देखे।
देख न पाये भोले जन वे चमत्कार की चकाचौंध में
हम जिन पर बलिहारी हैं वे हम पर ही प्रतिवार करेंगें।
देश-धर्म की बातों वाले नए-नए व्यापार चले हैं
भीतर घुप्प अँधेरों वाले घर के द्वारे दिये जले हैं।
आँखों के कृत्रिम आँसू ने भाव हजारों बार छले हैं
बगुले पीताम्बर ओढे ये काग हंस के रूप ढले हैं।
आश्वासन की विजय पताकाएँ अम्बर को चूम रहीं हैं
ऐसे में हम छ्द्म विजय ही तो केवल स्वीकार करेंगे।
©️सुकुमार सुनील
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