गुरुवार, 21 नवंबर 2024

गीत :बहुत दिनों के बाद आज मैं गाँव आ रहा हूँ

 01-03-2024

बहुत दिनों के बाद पुनः मैं गाँव आ रहा हूँ

पगडंडी पर सँकरी नंगे पाँव आ रहा हूँ।


सूट-बूट सब धर थैले में घर की तैयारी है

एक पुराने कुर्ते के नीचे धोती धारी है।

थैली में सत्तू हैं भैय्या सँग पीतल का लोटा

काँधे पर खुर्जी लटकी है और हाथ में सोटा।

बाँध मुरैठा मटमैले गमछे का अपने शीश

भरी धूप में चल पेड़ों की छाँव आ रहा हूँ।

पगडंडी पर सँकरी...


भुने हुए कुछ चने लिए हैं बच्चों को ककड़ी

गुड़ की भेली बाबूजी के लिए हाथ पकड़ी।

मिट्टी का है शेर और दो बिल्ली पीली-पीलीं

बिना खिलौनों के होतीं बच्चों की आँखें गीलीं।

कच्ची अमियाँ बीन-बीन भरने को अपनी झोली

अमराई में रुक-रुक ले विश्राम आ रहा हूँ।

पगडंडी पर सँकरी...


इक्का-ताँगा-बैलगाड़ियाँ मिले नहीं पथ में

भला बैठता कैसे बग्गी-रब्बा या रथ में? 

मीत रेत की जगह पड़ी थी डाबर अलबेली

अतः पैदल राह खेत की सीधी है ले ली।

रामजुहार संग कूपों का शीतल जल पी-पी

सूरज से बतियाता अपने ठाँव आ रहा हूँ।

पगडंडी पर सँकरी...


रखी जेब में सारी हिंदी, अँगरेजी भाषा

और अधर पर ठेठ देहाती अपनी ब्रजभाषा।

छोड़-छाड़ सारा शहरीपन एकाकी जीवन 

मन में भरने खुशियाँ सँग खुशियों में अपनापन। 

ठंडी-ठंडी छाँव वही और वही पुरानापन

पाने पावन प्यार लगाने दाँव आ रहा हूँ। 

पगडंडी पर सँकरी...


भीड़भाड़ आपाधापी औ छोड़ चिल्ल पौं-पौं

धूल-धुएँ से भरी हवाएँ बदबू और खौं-खौं।

चिड़ियों की चैं-चैं सुनने को  नदिया की कलकल

साँय-साँय और हूआँ-हूआँ पेड़ों की पल-पल। 

आवाजों के जंगल में तज भड़कीला संगीत 

सुनने कोयल का स्वर कागा काँव आ रहा हूँ।

पगडंडी पर सँकरी... 

©️ सुकुमार सुनील

गीत: नाम निशा है किंतु भोर की करती वह परवस्ती है

 कुछ अल्हड़पन, कुछ बेफिक्री और ज़रा सी मस्ती है

कुछ भोलापन, कूछ शैतानी, ज्यों मौजों में कश्ती है।

अगर इसी का, नाम ज़िंदगी, है तो बस जीकर देखो

पीड़ा में भी, जश्न मनाए, यह इक ऐसी बस्ती है। 

उर-उपवन में, सुमन खिले ज्यों, गंधित मन की क्यारी-क्यारी

नाम निशा है, किंतु भोर की, करती यह परवस्ती है ।


कुछ पागलपन, बहुत जरूरी, होता जीवन जीने को

कुछ ग़म अपने, पास पड़े हों, और भला क्या पीने को?

टुकड़ा-टुकड़ा, जब हो जाए, सपनों की चादर सुंदर

एक नेह का, धागा केवल, इसे चाहिए सीने को।

पलभर में, खुद को समझा ले, इससे और सरल क्या हो? 

बूँद-बूँद ,होकर अम्बर से, रिमझिम झरती है। 

नाम निशा है किंतु भोर की...


थोड़ा परहित, थोड़ी करुणा, थोड़ी दया मिलाई है

बड़े नाज से, प्रभु ने गुड़िया, यह शौकीन बनाई है।

सजना और, सँवरना शायद, स्वयं विधाता से सीखा

अपनेपन के, दे-दे छींटे, शक्ति स्वयं मुस्काई है ।

मेरे पास, कहाँ कुछ भी है, कैसे तुम्हें बधाई दूँ?

कुछ गीतों की, सौगातें हैं, बस शब्दों की हस्ती है ।

नाम निशा है किंतु भोर...

©️ सुकुमार सुनील

गीत: दे सको तो मीत देना स्वर हमारे गीत को भी

 01-09-2023

 दे सको तो मीत देना स्वर हमारे गीत को भी


हर तरफ कोहराम घेरे है कि मन आकुल बहुत है

तप रहा ज्यों ज्येष्ठ प्यासी प्राण की बुलबुल बहुत है।

बह रहा है स्वेद अविरल ऋतु इसे पावस न समझो

सिसकियों के स्वर हैं मध्यम हृदय शोकाकुल बहुत है।।

दो न दो काँधा कि विह्वल आँसुओं को

हो सके तो गुनगुनाना इस अभागी प्रीत को भी। 

दे सको तो मीत...


शब्द का अनुसरण करने को विवश हैं भावनाएँ

सह रहा कोई पथिक जैसे अकारण यातनाएँ।

कंठ रोना चाहता है किंतु रोना भी असंभव

लय रहित है स्वास की गति और बेसुर कामनाएँ।

हाथ पर धरना न धरना हाथ अपना

किंतु क्षणभर आजमाना इस अजब संगीत को भी।

दे सको तो मीत...


ताल सब बेताल हो बेसुध पड़े हैं इस निलय में

बह गई रसवंतिका ही ज्यों अचानक जल प्रलय में।

छंद के अनुबंध सारे शिथिल हो बिखरे पड़े हैं

और  भूषण ज्यों कि रूठे पृथक ही जाकर खड़े हैं।

आना न आना राग सा अनुराग लेकर

किंतु स्मृति में कहीं रखना सदा इस रीत को भी।

दे सको तो मीत...


फिर कभी निर्बाध हो गाना कि कोयल बहक जाए

फिर कभी उन्मुक्त होजाना पपीहा चहक जाए।

बाँसुरी के स्वर समूचे मौन हो तुमको सुनें प्रिय

शंखध्वनि सी सुन करे उच्चार मंत्रों का शुभे! हिय।

गीत तुम गाना न गाना गान जैसा मन बनाना

कर रहे तुमको समर्पित हार क्या हर जीत को भी।

दे सको तो मीत...

©️ सुकुमार सुनील

गीत : इसीलिये मैं जल्दी-जल्दी गाँव नहीं जाता

 17-09-2023

धुँधला कहीं न हो जाए वह मन का मनहर चित्र

इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी गाँव नहीं जाता।


छोटे-छोटे वे थोड़े घर और फूँस के छप्पर

लिपे हुए आँगन गोबर के, मृदा-पात्र, वे खप्पर।

पुते हुए पोता के घर और रंग-बिरंगे चौके

ओटे की दीवारों पर वे बने चित्र मोरों के।

जिसने जोड़ रखा था सबको सोंधी सी सौरभ से

उस पोता-पियरा मिट्टी का ठाँव नहीं पाता।

इसलिए मैं जल्दी-जल्दी...


नवदुर्गा में बना नौत्तिया खेलें बहिन-बुआ सब

प्रातः तीन बजे उठने का चलन समाप्त हुआ अब।

अहा! कहकहे लाँगुरिया के, देवी के भजनों के 

टोल नहीं अब वे सखियों के, दल वे भक्तजनों के।

क्वार-कनागत चंदा-तारे कहाँ   बनें गोबर से

पुरखों के चिह्नों पर लगता दाँव नहीं भाता।

इसलिए मैं जल्दी-जल्दी...


कौन करे मजदूरी आपस में करते थे साझा

सभी स्वाद थे मठ्ठे में ही क्या कोला क्या माज़ा? 

सुबह-शाम काटें सब फसलें मिलकर भाई-भाई

दुपहरिया में बैठ पेड़ के नीचे करें गुनाई।

कृषिकार्यों की पूर्ण पढाई आपस में करने को

आज बैठने कोई बरगद छाँव नहीं आता।

इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी...


ताऊ 'लम्बरदार' औरं खुशदिल बाबा 'मुछियारे'

रसमय करें माहौल प्रधान जी 'रामगुपाल' हमारे।

पूछ पहेली चुप कर देते सबको 'टेलर' भैया

अहा! 'विरन' की ढोलक बज गाती थी ता-ता-थैया।

'बंगाली' ताऊ और 'कारे' खेलें मिल बागौर

आज ठहाका चेहरों पर सुर्खाव नहीं लाता।

इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी...


हुए मलिन बंबा और पटरीं सिमटी-सिमटी पोखर

गुमसुम-गुमसुम पाट कुँओं के चहल-पहल खो-खोकर।

कहने को तो आ पहुँचा है गाँव खेत के पास

लेकिन घर-घर में छिप बैठा है ग्रामत्व उदास।

कंकरीट के गली-घरों में रिश्ते  नाज़ुक हैं

मुँडेरों पर करने कौआ काँव नहीं आता।

इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी...


'अब्बा' के घर के सन्मुख वह झलक राम लीला की

आब-ओ-हवा गाँव की कितनी शुभ थी शुचि-शीला थी।

खेत-खेत में ईख, बैल कोल्हू खींचें  वे मंद

और हौज से उठती वह ताज़े गुड़ की मृदु-गंध।

मटर-कूँकुरा-होरा-गाजर-भुने हुए आलू

सुन होली की गूँज धरा पर पाँव न था आता

इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी...


किसी एक के दुःख में होता पूरा गाँव खड़ा

जन-जन के अंतस में बसता था सद्भाव बड़ा।

छोर-छोर से आकर सब मिल बुर्जी छाते थे

फुल्के और दाल की दावत हँस-हँस खाते थे।

छोड़ो हर्षोल्लास शोक में सकुचाते हैं आज

पर-पीड़ा में पीड़ा वाला भाव नहीं आता। 

इसीलिए मैं जल्दी-जल्दी... 

©️ सुकुमार सुनील

गीत : लगा हुआ मन इसी जाँच पड़ताल में

 लगा हुआ मन इसी जाँच पड़ताल में

कैसे और कहाँ होंगे किस हाल में?


जब से बिछड़े झील किनारे

नयन राह देखें दुखियारे।

रोम-रोम व्याकुल सूने हैं

सारे महल गली चौवारे।

भटक रही है चाह बाबरी

दीप जलाकर थाल में।

कैसे और कहाँ होंगे...


पग पगडंडी नाप रहे हैं

हाथ निरंतर काँप रहे हैं।

एक अजब सा कोलाहल है 

स्वप्न सलोने हाँफ रहे हैं। 

एक -एक कर उतर रही है 

स्मृति उर के ताल में। 

कैसे और कहाँ होंगे...


भ्रमित कर रहे पवन झकोरे

साँझ दिवस पर डाले डोरे।

पंथ न सूझे अब जीवन का

आकर कोई तो झकझोरे।

जैसे कोई मीन फँसी हो

मछुआरे के जाल में।

कैसे और कहाँ होंगे...


मिलें नहीं पदचिह्न तुम्हारे

ढूँढ-ढूँढ जल-थल-नभ हारे।

महज तुम्ही से ये भासित हैं 

मधुवन-निधिवन-उपवन सारे। 

अटकी है यह दृष्टि शुभे! हर

पात-फूल-फल-डाल में। 

कैसे और कहाँ होंगे...


शायद मैंने एक किरन को

या फिर मुस्काते बचपन को। 

शायद दिन की एक घड़ी को

या फिर शुभग शंख की धुन को।

चाह थामने की कर दी थी

मीत भूल भ्रमजाल में।

कैसे और कहाँ होंगे...

©️सुकुमार सुनील

गीत : क्या हमारा प्यार गंगाजल नहीं है

 क्यों करें संकल्प क्यों सौगंध खाएँ

क्यों अकारण हम किसी देवालय जाएँ।

क्यों दिलाएँ एक-दूजे को भरोसा

जा चुका बेशर्त है जब दिल परोसा।।

क्यों कोई बहती नदी साक्षी बने प्रिय

क्या हमारा प्यार गंगाजल नहीं है?


गंध मकरंदी छुअन में है तुम्हारी 

नयन में डूबी हुई है झील खारी। 

दल गुलाबों के अधर से झर रहे हैं 

सिंधु आँचल में किलोलें कर रहे हैं। 

क्यों करें लहरों से जा अठखेलियाँ हम

क्या तुम्हारा मन बहुत चंचल नहीं है?

क्या हमारा प्यार...


अब करें  किस शुभ घड़ी की हम प्रतीक्षा

शेष है अब कौन सी दूभर परीक्षा।

क्या हमारी चेतनाएँ कह रहीं हैं 

मीत क्या हम एक-दूजे के नहीं हैं ।

क्यों किसी सद्गंथ के हम मंत्र बाचें

क्या हमारी आत्मा निश्छल नहीं है? 

क्या हमारा प्यार...


यज्ञ क्या होगा कोई  इस प्रेम से बढ़

वेद की पावन ऋचाएँ नयन से गढ़।

मौन आहुति स्वाँस की पल-पल लगी है 

भावना उपवास में निश-दिन जगी है। 

और क्या होगा सुफल उस स्वर्ग में प्रिय 

क्या तुम्हारा नेह तुलसी-दल नहीं है? 

क्या हमारा प्यार...

©️ सुकुमार सुनील

गीत: टेकनपुर में बीते ये दो वर्ष न भूलूँगा

पाया है उत्कर्ष यहाँ यह हर्ष न भूलूँगा


टेकनपुर में बीते ये दो वर्ष न भूलूँगा।




हरा-भरा यह गाँव सरीखा है सेना का बास


अपनेपन का यहाँ मिला है भर-भर कर एहसास।


छोटी - छोटी पहाड़ियों पर जाकर मन बहलाना


नहर किनारे कभी अचानक यों ही चलते जाना।


नईं-नईं बोली-भाषाएँ बहुत सुनूँगा पर


ब्रजबुलि से बुंदेली का स्पर्श न भूलूँगा।


टेकनपुर में...




टीसीपी की और मकोड़ा की हाटें सालेंगीं


हाटों में मिल होतीं बातें उर पीड़ा पालेंगीं।


वह अय्अप्पो का जाना वह पासिंग आउट परेड


विद्यालय के भ्रमण जाएँगे उर-तंत्री को छेड़।


बहुत सुहाने चित्र मिलेंगे जग में मुझको पर


आँखों में अंकित जौरासी दर्श न भूलूँगा।


टेकनपुर में...




पावन प्रांगण विद्यालय का और चहकते बाल


कक्ष-कक्ष लाएगा मन में यादों का भूचाल। 


नई सीख लेकर आएँगे सपनों में प्राचार्य 


सच में याद बहुत आएँगे आप सभी आचार्य।


कर्मभूमि पर और मिलेंगे साथी नये मगर


आप सभी का परम आत्मीय पर्श न भूलूँगा।


टेकनपुर में...


©️ सुकुमार सुनील 

Exam Preparation – परीक्षा की तैयारी और AI से सफलता का नया रास्ता | Smart Study Tips

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