शनिवार, 14 जनवरी 2023

गीत (दीपक, दीपक बेच रहा है)

 देखो युग भविष्य नन्हा सा

दीपक, दीपक बेक रहा है।


पिछले साल चली दीवाली उसके घर तक आ न सकी थी

बिना तेल और बिन बाती के माँ भी दीप जला न सकी थी

रो-रो कर सोई थी छुटकी भूखे नींद कहाँ आती थी?

देख विलखता निज शिशुओं को माँ पाषाण हुई जाती थी

देख विवशता विधवा माँ की दीपक ने मन में ठानी थी

अगले वर्ष पुनः दीवाली भूखे नहीं बीत जानी थी

इसीलिए तो गीली मिट्टी सुखा सुखाकर सेक रहा है।

दीपक, दीपक बेक रहा है।...


पूरी रात जली दीवाली अंधकार में डुबा रही थी

जला-जलाकर घोर निराशा हृदय-दीप को बुझा रही थी

कोमल आँखें कठोर सपने जाने कैसे झेल रहीं थीं

भूख-बेबसी-पीड़ा मिलकर आँख-मिचौनी खेल रहीं थीं

वर्ण और शब्दों से पहले जीवन पढ़ना पड़ा विवश ही

कहाँ मिल सकीं कलम-किताबें जीना था श्रम पर बरबस ही

खुले नयन ही स्वप्न सलोने क्षीण-छान पर देख रहा है।

दीपक, दीपक बेक रहा है।...


सारा जग सोया खोया था अपने-अपने शुभ सपनों में 

शायद एक वही अपनापन ढूँढ़ रहा था निज अपनों में 

लेटे-लेटे घूम रहा था गली मोहल्ला बस्ती-बस्ती

अल्हड़पन में भरे प्रौढ़ता क्लांत-हृदय में निश्छल मस्ती

देख नयन माँ के गीले वह नन्हा सागर डोल रहा रहा था

निज अबोध अनुजा का पीला चेहरा क्या-क्या बोल रहा था 

योग्य नहीं है फिर भी पासे समाधान के फेंक रहा है। 

दीपक, दीपक बेक रहा है।...


सुना उम्र से आते अनुभव मुझको लगता बात गलत है

विषम परिस्थिति और बुरे दिन करें समय का फेल गणित है

हो जाते परिपक्व सयम से पूर्व बाल जो असहाय हैं 

धैर्य साथ हो यदि मनुष्य के जीने के अनगिन उपाय हैं 

मिले न मोती तुम्हें सिंधु में तो क्या प्रिय सीपियाँ अनंत हैं 

चुन-चुन हार बना डालो तुम लेने वाले बहुत संत हैं 

जान गया यह, तभी राख से कच्चे-पक्के छेक रहा है। 

दीपक, दीपक बेक रहा है।...

©️ सुकुमार सुनील 

सोमवार, 12 दिसंबर 2022

ग़ज़ल (जानते हैं सब तुम्हें कितने भले हो?)

 जानते हैं सब तुम्हें कितने भले हो? 

तुम सदा ही भीड़ में छिपकर चले हो। 


काम करने का सलीखा तक नहीं है

रोल मॉडल खाम-ए-खां बनने चले हो।


हाँकते थे डींग कि आफताब हैं हम

जुगनुओं से ज्यादा तुम कब जले हो?


हो गया बस भी करो अब कद्रदानो

छल रहे हो जिनके टुकड़ों पर पले हो। 


हाँ सही है आज के तुम देवता हो 

बात पर टिकते नहीं हो दोगले हो। 


मौत छूकर मर गई कितनी दफ़ा उफ्फ 

सुकुमार ऐसे खूब साँचे में ढले हो। 

©️ सुकुमार सुनील

ग़ज़ल (कर कहीं से भी मगर आगाज़ करना सीख ले)

 कर कहीं से भी मगर आगाज़ करना सीख ले

सिर पे मेरे पैर रख परवाज़ करना सीख ले ।


लड़खड़ा न जाएँ तेरे कदम मंज़र देखकर

इसलिए मुझको नजर-अंदाज करना सीख ले । 


कल कहाँ किसने कहा कि आएगा ही आएगा 

चल जो करना है अमा तू आज़ करना सीख ले ।


उड़ रहीं रँग-रंग की ये तितलियाँ उड़ने भी दे 

कर सके बहती हवा पर राज करना सीखले।


मैं मयस्सर हूँ तुझे हर राह में हरएक पल 

अपनी हसरत को सनम अल्फाज़ करना सीख ले ।


आ रही हैं मुश्किलें जो आएँगी हर मोड़ पर 

मुश्किलों को तू उठाकर ताज करना सीख ले। 


पढ़ किताबें डिग्रियां ले जिंदगी में बेशुमार 

हुनर को पहले मगर हमराज़ करना सीख ले। 


कीमती है जान अपनी जान से पहले मगर 

वतन पर सुकुमार अपने नाज़ करना सीख ले। 

©️ सुकुमार सुनील

सजल (तुम हमें कब तक बहिष्कृत कर सकोगे?)

तुम हमें कब तक बहिष्कृत कर सकोगे?

स्वयं को कब तक तिरस्कृत कर सकोगे?


जा रहे हो द्वेष में निज को डुबाते

स्वयं को कैसे परिस्कृत कर सकोगे?


योग का संकल्प ही तो हो स्वयं तुम

विरह को कैसे अलंकृत कर सकोगे?


जीतकर हमको हमारी हार पर तुम

स्वयं को कैसे पुरस्कृत कर सकोगे?


मन मरे या तन किसी की मृत्यु पर तुम 

क्या कहो संगीत झंकृत कर सकोगे?


पढ़ रहे हो काम ही 'सुकुमार' नित तुम 

स्वयं को कैसे सुसंस्कृत कर सकोगे? 


©️ सुकुमार सुनील

सजल (बस अब मुझे मौन भाता है)


          *सजल*

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समांत- आता 

पदांत- है

मात्राभार- 16

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बस अब मुझे मौन भाता है

और नहीं बोला जाता है 


प्रश्न प्रतीक्षारत हैं सारे

उत्तर कौन कहाँ पाता है


आत्ममुग्ध हो गए सारथी

रथ विरुदावलियाँ गाता है 


दाने-दाने को भटके जन

तीतर स्वर्ण-भस्म खाता है


लगा नारियल कर बंदर के 

झूठ सत्य पर मुस्काता है

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          ©️सुकुमार सुनील

सजल (शब्द आप जो बोल रहे हैं)


   दिनांक - 24-08-2020

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          *सजल*

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समांत   - ओल

पदांत    - रहे हैं 

मात्राभार - 16

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भेद समूचा खोल रहे हैं

शब्द आप जो बोल रहे हैं


वाणी में रस है,विष भी है

सुनकर तन-मन डोल रहे हैं


लुटा कोष जग-संबंधों का

हम अपनत्व टटोल रहे हैं


सन्मुख छप्पन भोग रखे हैं 

मन मदिरा में घोल रहे हैं 


विधि सत्ता के चरण चूमती 

न्यायालय कर मोल रहे हैं


संस्कृतियों के स्रोत-बिंदु हैं

शुचिता के भूगोल रहे हैं

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           ©️सुकुमार सुनील

           

सजल (एक नया संग्राम सजल है)

                         *सजल*

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समांत- अल

पदांत- सजल है

मात्राभार - 16

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हिंदी का निज-ग्राम सजल है

एक नया संग्राम सजल है


अपने मुँह में वाणी अपनी

अनुपम ललित-ललाम सजल है


हिंदी माँ है देवि स्वरूपा

पावन चारों धाम सजल है


समझ सको तो समझो बंधु

मुक्त विधा का नाम सजल है 


यह पुष्पों का एक गुच्छ है 

सौरभ यह अविराम सजल है 


ग्रीष्मकाल में तरु छाया है

शीतकाल में घाम सजल है 


कथ्य-शिल्प वैचित्र्य लिए है

पदिक-पदिक उद्दाम सजल है


   ©️ सुकुमार सुनील 

          

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