देखो युग भविष्य नन्हा सा
दीपक, दीपक बेक रहा है।
पिछले साल चली दीवाली उसके घर तक आ न सकी थी
बिना तेल और बिन बाती के माँ भी दीप जला न सकी थी
रो-रो कर सोई थी छुटकी भूखे नींद कहाँ आती थी?
देख विलखता निज शिशुओं को माँ पाषाण हुई जाती थी
देख विवशता विधवा माँ की दीपक ने मन में ठानी थी
अगले वर्ष पुनः दीवाली भूखे नहीं बीत जानी थी
इसीलिए तो गीली मिट्टी सुखा सुखाकर सेक रहा है।
दीपक, दीपक बेक रहा है।...
पूरी रात जली दीवाली अंधकार में डुबा रही थी
जला-जलाकर घोर निराशा हृदय-दीप को बुझा रही थी
कोमल आँखें कठोर सपने जाने कैसे झेल रहीं थीं
भूख-बेबसी-पीड़ा मिलकर आँख-मिचौनी खेल रहीं थीं
वर्ण और शब्दों से पहले जीवन पढ़ना पड़ा विवश ही
कहाँ मिल सकीं कलम-किताबें जीना था श्रम पर बरबस ही
खुले नयन ही स्वप्न सलोने क्षीण-छान पर देख रहा है।
दीपक, दीपक बेक रहा है।...
सारा जग सोया खोया था अपने-अपने शुभ सपनों में
शायद एक वही अपनापन ढूँढ़ रहा था निज अपनों में
लेटे-लेटे घूम रहा था गली मोहल्ला बस्ती-बस्ती
अल्हड़पन में भरे प्रौढ़ता क्लांत-हृदय में निश्छल मस्ती
देख नयन माँ के गीले वह नन्हा सागर डोल रहा रहा था
निज अबोध अनुजा का पीला चेहरा क्या-क्या बोल रहा था
योग्य नहीं है फिर भी पासे समाधान के फेंक रहा है।
दीपक, दीपक बेक रहा है।...
सुना उम्र से आते अनुभव मुझको लगता बात गलत है
विषम परिस्थिति और बुरे दिन करें समय का फेल गणित है
हो जाते परिपक्व सयम से पूर्व बाल जो असहाय हैं
धैर्य साथ हो यदि मनुष्य के जीने के अनगिन उपाय हैं
मिले न मोती तुम्हें सिंधु में तो क्या प्रिय सीपियाँ अनंत हैं
चुन-चुन हार बना डालो तुम लेने वाले बहुत संत हैं
जान गया यह, तभी राख से कच्चे-पक्के छेक रहा है।
दीपक, दीपक बेक रहा है।...
©️ सुकुमार सुनील