सोमवार, 21 अगस्त 2023

गीत : गगन से बरस रहा है प्यार

 झमाझम बारिश की रफ़्तार

कि धरती गाए गीत-मल्हार।

लताएँ हिल-मिल करें किलोल

गगन से बरस रहा है प्यार।। 2


सजन आओगे आस नहीं

धैर्य अब बिल्कुल पास नहीं।

राह मेघों ने कीं अवरुद्ध

साँस का छिड़ा साँस से युद्ध।


न कोई और यहाँ अवलम्ब

करूँ बस बूँदों से अभिसार।

गगन से बरस रहा है प्यार...


ये कदली आम गुलाबी फूल

चिढ़ाए भ्रमर कली पर झूल।

मिलन की लागी ऐसी लगन

पीहु पपिहा की भरती अगन।


अगन जो मन को करती मगन

बनाती यादों को त्योहार।

गगन से बरस रहा है प्यार...


भरे हैं नदी-नबारे-ताल

ताल जो मन को करे अताल।

न भाती कजरी और न गीत

पुकारे चाह मीत ही मीत।


मीत तुम भूले कैसे प्रीत?

प्रीत की कर दो आ बौछार।

गगन से बरस रहा है प्यार....


चूहती ओसारे से बूँद

देखकर लेती आँखें मूँद।

सालता आँसू का आभास

नयन से तेरे ओ मधुमास!


मास यह बीता जाए खास

बहा दो आकर तुम रसधार।

गगन से बरस रहा है प्यार...


©️सुकुमार सुनील

गीत : हो सके तो साथ रखना

 रह सकें अक्षुण्य बन मेरे हृदय में

ये सदा संचित, शुभग शुभकामनाएँ

इसलिए मुझसे नहीं आभार होगा

किंतु मेरा मन यही हर बार होगा।

हो सके तो साथ रखना


चाह है सुरभित रहें संबंध सारे

हो कोई भी भूल मुझको माफ करना

वह कुटिल परिपक्वता न है न चाहूँ 

तुम मुझे शिशु ही समझ इंसाफ करना। 

है बहुत संकोच कुछ भी माँगने में 

इस लिए मत सोचना क्या माँग लूँगा? 

यह मेरी उँगली कभी भी छोड़ना मत

बस तुम्हारे साथ को सब मान  लूँगा। 



है कोई भी वस्तु इतनी कीमती कब? 

आपका आशीष ही उपहार होगा।

हो सके तो साथ रखना। 


आपका यह स्नेह पाकर मन मुदित है

विहँसने हैं लग गए रग-रोम सारे

हो गया है स्वर्ग सा परिवेश पूरा

और प्रमुदित हो रहे भू-व्योम- तारे।

तार मन के हो के झंकृत कह रहे हैं

प्यार कितना आह! इस जग में भरा है

मात-पितु-गुरुगण सभी हैं साथ पल-पल

हाथ जबसे आपने सिर पर धरा है।


पा सका कण भर जगह यदि उर-उदधि में 

श्रेष्ठ क्या इससे कोई अभिसार होगा। 

हो सके तो साथ रखना।


स्वर्ग से टूटा हुआ तारा कहो या

तुम किसी शुभ देव का अभिशाप समझो

मनुज से मैं देवता बनने चला हूँ

किस तरह और क्या करोगे? आप समझो।

प्राण का दीपक निरंतर जल रहा है

रोज झंझाएँ इसे झकझोरतीं हैं

स्वास को ही स्वर भजन का ॐ धुन का 

चल दिया करने मगर मन मोड़तीं हैं। 


पार्थ सा मैं दिग्भ्रमित हो सारथी सब

तब उचित उपदेश ही आधार होगा। 

हो सके तो साथ रखना। 


©️ सुकुमार सुनील

गीत: समंदर बह गया होता

तनिक सी इक लहर में यह समंदर बह गया होता
किनारा ताकता ही मुँह क्षितिज का रह गया होता।

कि वह जो मिल गया है आस का पर्याय बन करके
कि वह जो घुल गया है स्वास में मधुमास बन करके।
कि वह जो बनके परछांई हरइक क्षण साथ है मेरे
कि जिसके नयन बनकर दीप पग-पग पंथ हैं घेरे।

कि जिसने संचयित की सहजता की जाह्नवी उर में 
कि उसकी चेतना का ज्वार पल में ढह गया होता।
किनारा...

कि जिसने समर्पण को ही समर्पित कर दिया जीवन
कि जिसने एक कल्पित देवता को दे दिया तन-मन। 
कि जिसने कर लिया है तन कलश मन थाल पूजा का
कि जिसकी अर्चना ही प्रेम है फिर भाव दूजा क्या?

कि जिसने स्नेह को साधा समझकर श्रेष्ठ हर तप से
लगा चिर साधना में लीन सा वह रह गया होता।
किनारा...

कि जो संवेदनाओं के मृदुल मधुपर्क से सिंचित
कि जिसके मौन में है सृष्टि का ठहराव सा किंचित। 
कि वह जो बूँद सा आ मिल गया लवणीय इस जल में 
कि वह जो फूँक देता प्राण मेरे प्राण में पल में। 

कि जिसकी निकटता हर कष्ट को बौना बना देती
कि चिर अलगाव को वह नाम मेरे  कर गया होता। 
किनारा... 
©️ सुकुमार सुनील

गुरुवार, 27 अप्रैल 2023

गीत: मैं दर्पण हूँ, मैं तो बस प्रतिविम्ब दिखाता हूँ

 11-01-2022


मैं दर्पण हूँ, मैं तो बस प्रतिविम्ब दिखाता हूँ।

तुम जो भी हो तुम्हें तुम्हारे सन्मुख लाता हूँ।


लट काली क्या धवल केश से अपना लेना-देना

रूप, रूप को, हाँ अरूप को ज्यों का त्यों लिख देना।

होठ का रंग,नाक का नक्शा या ठोड़ी का तिल हो

जिसकी जैसी भाव भंगिमा जिसका जैसा दिल हो।

निश्छल मन की सहज तूलिका ले सच के रंगों से

आँखों के पर्दे पर मैं तस्वीर बनाता हूँ।

मैं दर्पण हूँ, मैं तो बस.....


सही गलत का, भान नहीं है, मुझको तुम सच मानो

निर्विकार अतर्क्य और मुझको अबोध ही जानो।

दागों को बेदाग नहीं मैं कह सकता कैसे भी

रोम-रोम स्पष्ट दिखता तुम जो भी जैसे भी। 

प्रश्न चिह्न का प्रश्न कोई कब उठता मेरे मन में 

किंतु क्या कैसे क्यों क्योंकर नहीं लगाता हूँ।

मैं दर्पण हूँ, मैं तो बस.....


हो सकता है धूल कभी छा जाती होगी मुख पर

लेकिन वह भी क्लेश कोई कब लाती मेरे सुख पर।

मैं अभाव में निज हाथों के पोंछ नहीं पाता हूँ 

अतः धूल को धूल सरीखा ही मैं दिखलाता हूँ। 

उठा न पाए उँगली कोई मुझ पर मीत अतः मैं 

कभी-कभी तो खुद को खुद के सन्मुख पाता हूँ। 

मैं दर्पण हूँ, मैं तो बस.....


©️सुकुमार सुनील

गीत: ये सलोने गीत की उनहार लड़के

 10-10-2022

शुष्क से दिखते सदा हर आर्द्रता सह

हैं नदी के पत्थरों से यार लड़के

स्वप्न का संसार सीने में सँजोए

ये सलौने गीत की उनहार लड़के।


मुस्कराहट में छिपाकर मौन कुण्ठा 

वेदनाएँ भर असीमित चल रहे हैं

है डगर अनजान पग-पग पर अँधेरा 

दीप जैसे स्वयं पल-पल जल रहे हैं।

विवशताएँ नियम शाश्वत हो गईं हैं 

पात्र सह-अनुभूति के कम ही रहे ये

हो गए दायित्व के आदी हैं काँधे

सूर्य जैसे नित्य ही उग-ढल रहे हैं। 

भावना को छंद में बाँधे हुए से

कल्पना का काव्यमय व्यापार लड़के।


क्या करे मन पल नहीं वैराग्य के ये? 

प्रातः सी कमसिन अवस्था गुनगुनी है 

मोड़ पर हर है ठिठकना सहज फिर भी

चाह में इनकी कि ज्यों संजीवनी है।

हो गए अभ्यस्त हैं पग ठोकरों के 

राह के कंकड़ इन्हें पहचानते हैं 

इसलिए दिन-रात इनको एक जैसे

धूप भी इनके लिए तो चाँदनी है। 

अनगिनत नयनों में तट बनकर बस ये

जग-सरित में तृण-सरिस पतवार लड़के ।


श्वेद में भीगे सबेरे, साँझ इनके

अरुणिमा नभ की कि अपलक ताकते हैं

शक्ति का संचार हो अनवरत तन में

धूल को कर स्वर्ण-भस्मी फाँकते हैं।

ब्रह्ममहूरत ही नहीं हर पहर इनके

स्वाँस की धुन सुन नयन निज खोलता है

तोड़ हर अवरोध झुकते और झुकाते

ये सतत मुड़ते-मुड़ाते चल रहे हैं 

बह रहे उठ-उठ औ गिर-गिर जल सरीखे 

दो तटों के मध्य सँकरी धार लड़के ।

©️ सुकुमार सुनील

गीत: सुख तो सुख थे जग से मेरे दुःख भी नहीं पचे

 सुख तो सुख थे जग से मेरे दुःख भी नहीं पचे

कैसे रोऊँ? अब आँखों में आँसू नहीं बचे।


देख नयन में नमी आँख छुटकी भर लाती है 

छोटू की व्याकुलता मुझसे सही न जाती है। 

कई दिनों तक टीस भूख की वे सह जाते हैं 

बाद प्रतीक्षा के नित ही भूखे सो जाते हैं। 

हाय राम! कैसे सहता हूँ इतनी लाचारी 

दुनिया को हँसना क्या मेरे रोदन नहीं जँचे। 

कैसे रोऊँ? अब आँखों में आँसू नहीं बचे..... 


सुस्त देखता जब भी मालिक मुझ पर झल्लाता

कल से काम न करने आना मुझको धमकाता। 

सहानुभूतियों वाले जैसे दिन ही चले गए

जीवन, मृत्यु न जाने किसके हाथों छले गए?

एक जान के साथ बँधीं हैं तीन-तीन जानें

इसीलिए ही बस फाँसी के फंदे नहीं रचे।

कैसे रोऊँ? अब आँखों में आँसू नहीं बचे.....


कहते हैं सब काम बहुत है करने वालों को

कौन पढ़ेगा आकर मेरे मौन मलालों को।

खाक छानता फिरता दर-दर सबकी सुनता हूँ

एक-एक दाना चिड़िया के जैसे चुनता हूँ। 

एक भूल की थी बचपन में शिक्षा पा न सका

इसीलिए दोपहर दुःख के अब  तक नहीं लचे। 

कैसे रोऊँ? अब आँखों में आँसू नहीं बचे.....


करूँ प्रतिज्ञा अब यदि मैं जीवित रह पाऊँगा

भूखा रह लूँगा बच्चों को किंतु पढ़ाऊँगा।

यह कलंक जो मुझे मिला है इसे मिटाना है

अपने छोटू और छुटकी को योग्य बनाना है। 

सेवा का हो भाव और अवसर भी खूब मिलें

उनके जीवन में अभाव का ताण्डव नहीं मचे। 

कैसे रोऊँ? अब आँखों में आँसू नहीं बचे..... 

सुख तो सुख थे जग से मेरे दुःख भी नहीं पचे ।

©️ सुकुमार सुनील

गीत : प्रेम को पूजा समझकर जी रहा हूँ

 1-12-2022

कर दिए अर्पित, शिवालय पर, तुम्हारे पत्र सारे

प्रेम को पूजा, समझकर जी रहा हूँ।


 है दृगों में ओम जो ऊपर लिखा था

अक्श वह हर जो कि पढ़ने में दिखा था

हैं छपे स्मृति पटल पर कृष्ण-राधा

नित्य जो संबोधनों में सतत साधा

याम आठों दिव्यरस अनुभूतियों का

सहज ही श्रद्धा सहित मैं पी रहा हूँ।

प्रेम को पूजा समझकर जी रहा हूँ।...


बैठकर इकटक लगन जो थी लगाई

बन गई इस जन्म की सच्ची कमाई

ध्यान कोई धर न पाया हूँ अलग से

सोचकर तुमको विलग होता था जग से

पाई थी तल्लीनता पढ़ चिट्ठियों को

कल्प से हूँ ध्यानरत अब भी रहा हूँ।

प्रेम को पूजा समझकर जी रहा हूँ ।...


भाव की तह तक न मैं था पहुँच पाया

इसलिए हर भाव प्रभु-पद में चढ़ाया

हो गया हर अश्रु गंगाजल सरीखा

ज्यों बसा हर साँस में शुचि ज्ञान गीता

बह रहा है प्राण में संगीत अविरल

गीत का अतृप्त अभिलाषी रहा हूँ। 

प्रेम को पूजा समझकर जी रहा हूँ ।...

©️ सुकुमार सुनील 

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