तनिक सी इक लहर में यह समंदर बह गया होता
किनारा ताकता ही मुँह क्षितिज का रह गया होता।
कि वह जो मिल गया है आस का पर्याय बन करके
कि वह जो घुल गया है स्वास में मधुमास बन करके।
कि वह जो बनके परछांई हरइक क्षण साथ है मेरे
कि जिसके नयन बनकर दीप पग-पग पंथ हैं घेरे।
कि जिसने संचयित की सहजता की जाह्नवी उर में
कि उसकी चेतना का ज्वार पल में ढह गया होता।
किनारा...
कि जिसने समर्पण को ही समर्पित कर दिया जीवन
कि जिसने एक कल्पित देवता को दे दिया तन-मन।
कि जिसने कर लिया है तन कलश मन थाल पूजा का
कि जिसकी अर्चना ही प्रेम है फिर भाव दूजा क्या?
कि जिसने स्नेह को साधा समझकर श्रेष्ठ हर तप से
लगा चिर साधना में लीन सा वह रह गया होता।
किनारा...
कि जो संवेदनाओं के मृदुल मधुपर्क से सिंचित
कि जिसके मौन में है सृष्टि का ठहराव सा किंचित।
कि वह जो बूँद सा आ मिल गया लवणीय इस जल में
कि वह जो फूँक देता प्राण मेरे प्राण में पल में।
कि जिसकी निकटता हर कष्ट को बौना बना देती
कि चिर अलगाव को वह नाम मेरे कर गया होता।
किनारा...
©️ सुकुमार सुनील
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