11-01-2022
मैं दर्पण हूँ, मैं तो बस प्रतिविम्ब दिखाता हूँ।
तुम जो भी हो तुम्हें तुम्हारे सन्मुख लाता हूँ।
लट काली क्या धवल केश से अपना लेना-देना
रूप, रूप को, हाँ अरूप को ज्यों का त्यों लिख देना।
होठ का रंग,नाक का नक्शा या ठोड़ी का तिल हो
जिसकी जैसी भाव भंगिमा जिसका जैसा दिल हो।
निश्छल मन की सहज तूलिका ले सच के रंगों से
आँखों के पर्दे पर मैं तस्वीर बनाता हूँ।
मैं दर्पण हूँ, मैं तो बस.....
सही गलत का, भान नहीं है, मुझको तुम सच मानो
निर्विकार अतर्क्य और मुझको अबोध ही जानो।
दागों को बेदाग नहीं मैं कह सकता कैसे भी
रोम-रोम स्पष्ट दिखता तुम जो भी जैसे भी।
प्रश्न चिह्न का प्रश्न कोई कब उठता मेरे मन में
किंतु क्या कैसे क्यों क्योंकर नहीं लगाता हूँ।
मैं दर्पण हूँ, मैं तो बस.....
हो सकता है धूल कभी छा जाती होगी मुख पर
लेकिन वह भी क्लेश कोई कब लाती मेरे सुख पर।
मैं अभाव में निज हाथों के पोंछ नहीं पाता हूँ
अतः धूल को धूल सरीखा ही मैं दिखलाता हूँ।
उठा न पाए उँगली कोई मुझ पर मीत अतः मैं
कभी-कभी तो खुद को खुद के सन्मुख पाता हूँ।
मैं दर्पण हूँ, मैं तो बस.....
©️सुकुमार सुनील