मन से मन को मेंट न पाए
हम जीभर कर भेंट न पाए।
जग में इतना प्यार हमीं क्यों
जाने भला समेंट न पाए।।
जल में दीपक विम्ब सरीखे
तुम तो पल-प्रतिपल जगमग थे।
लहरों से अठखेली करते
भूल गए सारा अग-जग थे।
झंझाओं से डरकर हम ही
नौका पर आसीन हो गए
हाथ हमारे ही द्युति पाने
जल में गहरे पैठ न पाए।
चुपके से पल्लव पर उतरे
तुम पावन प्रातः के मोती।
नील-गगन सा गात तुम्हारा
पहने पीत किरन की धोती।
कटु कलुषित स्पर्श हमारा
छूकर छूमंतर कर डाला
दिव्य दीप्ति शुचिता पूरित वह
शापित नेत्र समेट न पाए।
तुमने फूल-फूल महकाया
कलियों पर योवन बर्साया।
नाना रूप और रंगो से
जग को सुंदर-सुगढ़ बनाया।
अभिशापित अपना ही अंतर
ऊपर ओढ़े मैली काया
हम हीं निपट मूँढ कंचन के
शुचि साँचे में बैठ न पाए।
©️ सुकुमार सुनील
4 टिप्पणियां:
Bahut sundar
बहुत-बहुत हार्दिक धन्यवाद 🙏
कविता का रसास्वादन करने वाले सभी सदस्यों का हार्दिक धन्यवाद व अभिनंदन 💐 💐 💐 🙏😊
👌👌
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