रविवार, 13 नवंबर 2022

गीत (ढूँढो रावण की नाभि कहाँ?)

दुष्कर्म भरे हुंकार जहाँ

पग-पग पर पापाचार जहाँ।

हम कैसे कहदें सूरज है?

चहुँदिशि पसरा अंधियार जहाँ।


केवल इतिहासों को पढकर हम आत्ममुग्ध कब तक होंगे?

उस पूर्व पुरातन शुचिता पर ही बस गर्वित कब तक होंगे?

इस देवतुल्य शुचि वसुधा का हो लेशमात्र भी ध्यान तुम्हें,

इस ज्ञानकुण्ड तप-स्थल पर हो रंचमात्र अभिमान तुम्हें।

तो किसी विभीषण से मिलकर ढूँढ़ो रावण की नाभि कहाँ?


यह जीर्ण-शीर्ण होती संस्कृति जिस दिन गौलोक सिधार गई,

हा! पतित पावनी सीता माँ रावण के सम्मुख हार गई।

यह भरत-भूमि सारे जग में धिक्कार सहेगी निश्चित है,

यदि राम स्वयं संदिग्ध हुए तो फिर भारत क्या भारत है!

लो अभी समय है फिर कोई पा  सका समय से पार कहाँ?


यह अवसरवादी रंग महज़ इस राजनीति से उड़ जाए

संभव है फिर से गीता में अध्याय नया इक जुड़ जाए।

फिर कोई दुःशासन दुर्योधन दुस्साहस नहीं जुटायेगा

नहीं चौराहे पर द्रौपदि का यूँ चीर हरण हो पाएगा।

रक्षक यदि कृष्ण सरीखे हों फिर होगा अत्याचार कहाँ?

©️ सुकुमार सुनील 

9258704656

4 टिप्‍पणियां:

Anita ने कहा…

अति सुंदर

Sukumar Sunil ने कहा…

हार्दिक आभार, धन्यवाद मैम 🙏 😊

बेनामी ने कहा…

वाह!

Sukumar Sunil ने कहा…

बहुत-बहुत हार्दिक आभार, धन्यवाद 🙏 😊 😊

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