हम जग में जीते हैं घर में हारे हैं
हम तप-तप कर बड़े हुए हैं
हम गिर-गिर कर खड़े हुए हैं
संघर्षों से बहुत लड़े हैं
कितने ही प्रतिमान गढ़े हैं
युद्ध क्षेत्र में दुश्मन पर हुँकारे हैं
लेकिन अपनों के सन्मुख बेचारे हैं।
गीत अहिंसा के हम गाने वाले हैं
शरणागत वत्सल हैं हम रखवाले हैं
प्रेम पगे हैं फूलों से मुस्काते हैं
परिश्रम करके अपनी क्षुधा मिटाते हैं
अपनी आँखों ने आँसू स्वीकारे हैं
फिर भी अपने आस-पास अंगारे हैं।
जाने कितनों से लोहा मनवाया है
कितने शिखरों पर परचम लहराया है
सिंहों के दाँतों को गिनते आए हैं
भरत भूमि हम तब भारत कहलाए हैं
दूर-देश तक अपने जय-जयकारे हैं
अपनों ने ही पर घर में दुत्कारे हैं।
©️ सुकुमार सुनील
4 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर
अगाध आभार 🙏 🙏 🙏
अति सुन्दर 👌
Bhut sunder
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